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२९८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
निपुण साथी साधुन मिले तो पाप कर्मों का वर्जन करता हुआ काम भोगों में अनासक्त रह अकेला ही विहार करे । सामान्य श्रमण के लिए यह कथन आपवादिक हो सकता किन्तु एकाको विहार प्रत्येक मुनि के लिए विहित नहीं है । जिसका ज्ञान समृद्ध होता है, शारीरिक संहनन सुदृढ होता है वह आचार्य की अनुमति पाकर ही एकल-विहार प्रतिमा स्वीकार कर सकता है ।
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इस प्रकार एकाकी विहार का दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में साधारण साधु के लिए निषिद्ध है । किन्तु जिनकल्पी अथवा इसके जैसे अनेक गुणों से युक्त तथा उपर्युक्त मानदण्ड सम्पन्न विशिष्ट श्रमण को एकाकी विहार का भी विधान है ।
उपसंहार-विहारचर्या विषयक उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मूलाचारकार आदि ने इस सम्बन्ध में बहुत ही सूक्ष्म ओर स्पष्ट विवेचन किया है। वस्तुतः श्रमणों की प्रत्येक चर्या संयम और समिति पूर्वक होती है । श्रमणाचार पालन में राग-द्वेबादि जिन कारणों से दूषण की सम्भावना रहती है, उन सबसे वे दूर रहते हैं । एक स्थान पर स्थिरवास भी राग-द्वेष की अभिवृद्धि में बहुत सहायक होता है । अतः वे स्थिरवास को छोड़कर विहार चर्या में निरन्तर लीन रहते हैं । सम्पूर्ण जीवन एक स्थान से दूसरे स्थान विहार करते हैं । चाहे वह ग्राम हो या नगर, भयानक जंगल हो या गुफा सर्वत्र हवा की भाँति अप्रमत्तभाव से नंगे पैर ही पैदल विचरण करते रहते हैं । किसी प्रकार के वाहन का प्रयोग नहीं करते । ऐसे ही अनियत बिहारी श्रमण जल्दी ही रत्नत्रय की भावना और उसके अभ्यास, शास्त्र कौशल तथा समाधिमरण के योग्य क्षेत्र, गुरु आदि की प्राप्ति सहज में ही कर लेते हैं । महान् जैन धर्म, संस्कृति और साहित्य की जो प्राचीन काल से ही समृद्ध एवं अविछिन्न परम्परा आज तक प्रवाहित हैं उसके अन्तः में ऐसे ही अगणित श्रमणों का महान् त्याग है । वे कितने सामर्थ्यशील श्रमण होंगे जो श्रमणाचार का विशुद्धतापूर्वक पालन करते हुए धर्म एवं ज्ञान के प्रचार तथा विपुल एवं विविध साहित्य के प्रणयन में तत्पर रहते थे । इन श्रमणों के अनियत विहार चर्या से अनासक्त प्रवृत्ति में वृद्धि, ज्ञानायतन, धर्मायतन का विकास तथा विभिन्न श्रमणों, आचार्यों के अनुभव एवं सम्पर्कों से ज्ञानार्जन, शास्त्राभ्यास का लाभ एवं कल्याणकारी तत्त्वों के प्रसारप्रचार द्वारा स्व पर कल्याण की भावना में अभिवृद्धि होती है । अतः वर्षावास
१. नया लभेज्जा निउणं सहायं गुणाघियं वा गुणओ समं वा । एक्को वि पावाई विवज्जयंतो विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो ॥
- दशवेआलियं द्वितीय चूलिका गाथा २० पृ० ५२२, ५३०, २. वही, टिप्पणी ३१. पृ० ५३०.
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