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________________ बिहार चर्या : २९७ | दर्शन और चारित्र में स्थिरता आती है । वे से उसे ज्ञान की प्राप्ति होती मुनि धन्य जो जीवन पर्यन्त 'गुरुकुल वास' नहीं छोड़ते । ' एकल बिहारी कौन ? - जो मुनि बहुत काल से दीक्षित हैं, ज्ञान, संहनन और भावना से बलवान् ऐसे मुनि एकल विहारी हो सकते हैं ।" अर्थात् जो श्रमण बहुत काल से दीक्षित रहकर बारह प्रकार के तप की आराधना करते हैं, बारह अंग और चौदह पूर्वो के ज्ञाता हैं अथवा उस काल-क्षेत्र के अनुकूल आगम ( सूत्र ) के ज्ञाता हैं तथा प्रायश्चित्त आदि शास्त्रों (सूत्रों) के भी ज्ञाता हैं । शरीर की शक्ति और हड्डियों के बल से अथवा भाव बल रूप सत्त्व एवं धैर्य से युक्त हैं । शरीरादि से भिन्न एकत्व भावना में तत्पर हैं । वज्र - वृषभ - नाराच आदि तीन संहननों में से किसी उत्तम संहनन के धारक हैं, धृति युक्त क्षुधादि बाधाओं को सहन करने में समर्थ है : ऐसे श्रमण को ही एकल विहारी होने की जिनेन्द्रदेव ने आज्ञा दी है ।" ३ अन्य साधारण मुनियों के लिए और विशेषकर इस पंचम काल में एकाकी विहार का विधान नहीं है । श्वेताम्बर परम्परा के स्थानाङ्ग सूत्र में एकलविहार प्रतिमा के अन्तर्गत एकलविहारी होने के लिए आठ मानदण्ड उल्लिखित हैं १ - श्रद्धावान् २ - सत्यवान् ३ - मेघावी ( श्रुतग्रहण की मेघा से सम्पन्न ), ४ - बहुश्रुतत्व, ५ - शक्तिमान् (तपस्या, सत्त्व अर्थात् भय और निद्रा को जीतने का अभ्यास, सूत्र, एकत्व और बल— इन पाँच तुलाओं से जो अपने को तोल लेता है वह शक्तिमान् है ), ६-अल्पाधिकरण (अकलहत्व) ७ - धृतिमान् और ८ - वीर्यसम्पन्नता - ये आठ योग्यतायें एकाकी विहार हेतु अनिवार्य है। कभी-कभी कहीं ऐसी स्थिति सामान्य श्रमण को को आ सकती है कि संयम-निष्ठ साधुओं का योग प्राप्त न हो तो संयमहीन के साथ रहना श्रेयस्कर नहीं होता, भले ही कदाचित् उसे अकेले रहने की स्थिति आ जाए। इसी बात को ध्यान में रखते हुए श्वेताम्बर परम्परा के ही दशकालिक में कहा है - यदि कदाचित् अपने से अधिक गुणी अथवा अपने समान गुण वाला १. णाणस्स होइ भागी थिरयरगो दंसणे चरिते य । धन्ना आवकहाए गुरुकुलवासं न मुंचति ।। उत्तराध्ययन ११।१४ की चूर्णि पृष्ठ १९८. २. ज्ञानसंहननस्वांत भावना बलवन्मुनेः । चिरप्रव्रजितस्यैक विहारस्तु मतः श्रुते ॥ आचारसार. २७. ३. तवसुत्तसत्तएगत्तभाव संघडण घिदि समग्गो य । पविआआगमबलिओ एयविहारी अणुण्णादो ॥ मूलाचार वृत्ति सहित ४। १४९. ४. ठाणं ८1१. पृष्ठ ७८७. तथा ८२३. २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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