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________________ २९६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन एकाको विहार का निषेध क्यों ? __संघ के मध्य में उत्तमार्थ (मोक्ष) को आराधना करना सरल होता है।'' क्योंकि आचार्य उस संघ के नायक होते हैं जो निरन्तर सावधान रहते हैं । उनके द्वारा साधुवर्ग को बार-बार सन्मार्ग में लगाया जाता है। आचार्य अपने द्वारा भावना आदि में नियुक्त उस साधुवर्ग की इन्द्रियरूपी चोरों और कषायरूपी अनेक जंगलो हिंसक जानवरों से रक्षा करता है। और इस तरह संसाररूपी महावन को पार किया जा सकता है किन्तु जो साधु चारित्रभ्रष्ट साधुओं की क्रिया करता है वह असंयमी होकर साधुसंघ से बाहर होकर मोक्षमार्ग से दूर हो जाता है। इसीलिए अनेक दोषों के कारण एकाकी विहार का निषेध किया गया है एकाकी विहार में अनेक दोष है यथा-गुरु की निन्दा, श्रुताध्ययन का व्युच्छेद. तीर्थ (जिन शासन) में मलिनता, मूर्खता (जड़ता), विह्वलता (आदुलता), पार्श्वस्थता तथा आत्मनाश भी सम्भव है । कांटे, स्थाणु, क्रोधयुक्त कुत्ते. बैल, सर्प तथा अन्यान्य हिंसक जानवर, म्लेच्छ, विष, अजीणं (विसूचिका या हैजा) आदि के द्वारा आत्मघात रूप विपत्तियों के प्रसंग भी उपस्थित हो सकते हैं। एकलविहारी श्रमण को आज्ञाकोप (अतिप्रसंग), मिथ्यात्वाराधन, आत्मनाश, सम्यग्दर्शन ज्ञानचरित्र इन गुणों का विधात एवं संयम की विराधना-ये पांच पापस्थान माने गये हैं । श्वेताम्बर परम्परा में भी कहा है कि एकाकी विहार में स्त्री-प्रसंग की सम्भावना, कुत्ते आदि जानवरों और शत्रुओं का भय रहता है । भिक्षा की विशुद्धि नहीं रहती महाव्रतों के पालन में जागरूकता नहीं रहती । अतः एकाकी न रहकर साथ (संघ) में रहना चाहिए। कहा भी है कि मुनि गुरुकुल (गुरु की आज्ञा में अथवा गच्छ या गण) में रहे, स्वछंद विहारी होकर अकेला न विचरे गुरुकुल में रहने १. सक्का हु संघमज्जे साहेदूं उत्तम अg-भ० आ० गाथा १५५५. २. वही गाथा १२८४-१२८५. १२८८. ३. मूलाचार ४।१५१, १५२, ४. आणा अणवत्थाविय मिच्छत्ताराहणादसाओय । संजमविराहणाविय एदे दुणिकाइया ठाणा ।। वही ४।१५४. एगागियस्स दोसा इत्थी साणे तहेव पडिणीए । भिक्ख विसोहिमहन्वय तम्हा सेविज्ज दोगमणं ।उत्तराध्ययन की आचार्य नेमिचन्द्र कृत टीका पत्र २१४ पद उद्धृत गाथा । (उत्तरज्झयणाणि भाग २ पृ० १२२.) ६. उत्तराध्ययन ११३१४ वृहद्वृत्ति ३४७. For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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