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विहार चर्या : २९५ होते हैं। जैसे आम का वृक्ष दुराश्रय के द्वारा निम्बत्व (कडुवेपन) को प्राप्त होता है वैसे ही धर्मानुराग में आलसी (मंदसंवेगी) तथा समाचारहीन (अपुष्टधर्मो) मुनि का आश्रय करने से अच्छे मु नियों में भी ये दोष आ जाते हैं । अतः इन दोषों से युक्त मुनियों का संग कभी नहीं करना चाहिए । क्योंकि घोड़े की लोद के समान बाहर से अच्छा किन्तु जो अन्दर से कुथित (निंद्य और घृणित) भावयुक्त है, और बाह्य में बगुले के सदृश क्रिया और चारित्र से युक्त है उस मुनि के बाह्य वृक्षमूल आदि योग धारण भी किसी काम का नहीं है।'
अपनी कमजोरियों को छिपाने के लिए जो मुनि स्वच्छन्द होकर एकाकी विहार में प्रवृत्त होता है वह दोष प्रकट होने के भय से संघ में अन्यश्रमणों के साथ रहने से डरता है। भगवती आराधना के कर्ता शिवार्य ने इस प्रकार के श्रमण को यथाछन्द नामक पापश्रमण कहा है । यथा -यथाइन्द्रिय और कषाय के दोष से अथवा सामान्य योग से विरक्त होकर जो चारित्र से गिर जाता है वह साधुसंग (संघ) से अलग हो जाता है । साधुसंघ से निकलकर पर्वाचार्यों द्वारा अकथित (नहीं कहे गये) आगम विरुद्ध मार्ग की अपनी इच्छानुसार कल्पना करता है । इन्द्रिय और कषाय की प्रबलता के कारण वह आगम को प्रमाण नहीं मानता और अपनी इच्छा के अनुसार जिनेन्द्र द्वारा कहे गये अर्थ को विपरीत रूप से ग्रहण करता है । इस प्रकार श्रमण ऋद्धि गारव' रस गारव और सात गारव-इन तीन प्रकार के गारव के कारण अभिमानी हो जाते हैं तथा गृद्धि, कुटिलता, आलस्य, उद्योगरहित, लोभ और पापबुद्धि स्वभाव के कारण गच्छ (ऋषि समुदाय या संघ) में रहते हुए भी अपनी शिथिलाचार प्रवृत्ति के कारण सभी के साथ रहना नहीं चाहते ।। १. मुलाचार १०७१, ७०,७३. २. भगवती आराधना गाथा १३१०-१३१२ ३. गारव को गौरव भी कहते हैं । अर्थात् दूसरों को तिरस्कृत एवं हीन प्रगट
करने के लिए गर्व या अभिमान वश स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करना। ऋद्धि गारव से तात्पर्य है शिष्य, पुस्तक, पिच्छी और कमण्डलु आदि मेरे उपकरण जितने सुन्दर हैं वैसे अन्य मुनियों के नहीं-ऐसा गर्व करना और दूसरों को
तिरस्कृत करना। ४. मुझे आहारादि में सुस्वादु और अच्छे पदार्थ मिलते हैं-ऐसा गर्व करना
रस गारव है। ५. मैं बड़ा ही सुखी हूँ । इत्यादि गर्व करना सात गारव है । ६. गारविओ गिद्धियो माइल्लो अलसलुद्धणिद्धमो ।
गच्छेवि संवसंतो णेच्छइ संघाडयं मंदो । मूलाचार ४१५३.
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