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________________ २९४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन "एकाको विहार और उसका निषेध श्रमण जोवन में प्रतिक्षण जाग्रत रहने की आवश्यकता होती है । संघ में रहकर साधना करने से बाह्य सहायक साधन उपलब्ध रहते हैं जिससे साधना निर्विघ्न चलती है। किन्तु साधु-वेष धारण करके भी संघ में न रहकर अथवा अपनी कमजोरियों को दूर न करके उनकी पूर्ति हेतु संघ से अलग होकर स्वच्छंद प्रवृत्ति हेतु एकाकी विहार करना श्रमण के लिए निषिद्ध है। जैन शास्त्रों में गृहीतार्थ और अग्रहीतार्थ संश्रित-मात्र ये दो प्रकार के विहार बताये हैं । इन दो के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार अर्थात् एकाकी या अन्य तीसरे विहार का विधान जिनेन्द्रदेवों ने नहीं किया है । गृहीतार्थ विहार का अर्थ है जीवादि तत्वों के स्वरूप के ज्ञाता होकर चारित्र पालन करते हुए देशान्तरों में विहार (गमन) करना । तथा अगृहीतार्थ संश्रित विहार से तात्पर्य जीवादि तत्वों के ज्ञान के बिना भी चारित्र का पालन करते हुए देशान्तर गमन अर्थात् विभिन्न क्षेत्रों में विहार करना है।' एकाकी विहार का निषेध करते हुए आचार्य बट्टकेर ने कहा है कि गमन, आगमन "शयन, आसन, वस्तुग्रहण, आहार ग्रहण, भाषण, मलमूत्रादि विसर्जन-इन सब कार्यों में स्वछन्द प्रवृत्ति करने वाला कोई भी श्रमण मेरा शत्रु भी हो तो वह भी एकाकी विहार न करे । क्योंकि अपने गुरु और संघ के अनुशासन में रहकर साधना न करके शयन, आसन, वस्तुग्रहण, भिक्षाग्रहण, मल-मूत्र विसर्जन, बोलना तथा गमनागमन अर्थात् देशान्तर विचरण आदि कार्यों में स्वछन्द प्रवृत्ति करना एकाकी विहार है । कहा भी है-आचार्यकुल (श्रमणसंघ) को छोड़कर जो श्रमण 'एकाकी होकर स्वछन्द विहार करता है, बोलता है और उपदेश (शिक्षा) दिये जाने पर भी ग्रहण नहीं करता वह पापश्रमण है । तथा जो साधु पहले शिष्यपना प्राप्त किये बिना ही स्वयं आचार्यत्व धारण कराने हेतु उतावले रहते हैं - वे ऐसे पूर्वापर विवेक रहित साधु अंकुशहीन मत्त हाथी की तरह भ्रमण करने वाले ढोढाचार्य (ढुंढायरिओ) ही कहे जाने योग्य हैं । अतः जो दुर्जनवचनों से युक्त पूर्वापर विचार रहित भाषण करता है उनके वचन नगर के गन्दे नालों से बहने वाले पानी की तरह सदा कूड़ा-कचरा धारण करने वाले (दुर्गन्धित और मैले) १. गिहिदत्थे य विहारो विदियोऽगिहिदत्थसंसिदो चेव। . एतो तदियविहारो गाणुण्णादो जिणवरेहिं ।।मूलाचार ४।१४८. २. सच्छंदगदागदीसयणणिसयणादाणभिक्खवोसरणे । ___सच्छंदजंपरोचि य मा मे सत्तवि एगगी ॥ वही ४।१५०. ३. मूलाचार १०१६८. ४. आयरियत्तण तुरिओ पुव्वं सिस्सत्तणं अकाऊणं । हिंडई ढुंढायरिओ णिरंकुसो मत्तहत्यिव्व ॥ वही १०।६९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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