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________________ विहार चर्या : २९३ उससे बाहर जाते समय करते हैं । पूर्वोक्त सभी प्रकार की वसतिकाओं में ठहरने हेतु प्रवेश के समय णिसोहि (निसीहि या निषेधिका) और उनसे जाते समय आसिका समाचार करने का मुनि को विधान है क्योंकि इन प्रदेशों या स्थानों के स्वामी या अदृश्य रूप से रहने वाले उन स्थानों के अधिष्ठाता देवों की अनुमति के लिए "णिसीहि' शब्द के उच्चारण पूर्वक 'मैं यहाँ प्रविष्ट हो रहा हूँ'---यह विज्ञप्ति देनी चाहिए ताकि उनका अनादर न हो। क्योंकि जिस स्थान का कोई मनुष्य स्वामी होता है उससे तो साक्षात् पूछकर ही मुनि प्रविष्ट होगा किन्तु जिस स्थान का कोई मनुष्य स्वामी न हो ऐसे पर्वत की कन्दरा, गुफा आदि स्थानों में प्रवेश करते समय 'निसीहि' शब्द का उच्चारण करके मुनि उसमें प्रवेश करते हैं। 'निसोहि' शब्द का अर्थ पाप की निवृत्ति भी होता है। अर्थात् मेरे गमनादि से जो पाप-क्रिया हुई हो उससे मैं निवृत्ति की भावना भाता हूँ। आज भी श्रावकजन तक जैनमन्दिरों में प्रवेश करते समय "निःसही" शब्द का उच्चारण करते हैं जो कि पूछकर प्रवेश करने रूप पूर्वोक्त आशय का सूचक लगता है। जिस तरह इन स्थानों में प्रवेश के समय 'णिसीहि' कहकर प्रवेश करने का विधान है उसी तरह इन वसतिका स्थानों से जाते समय 'आसिया' (आसिका) शब्द के उच्चारण द्वारा "मैं यहाँ से जा रहा हूँ अब आप विराजिए"-इस रूप विज्ञप्ति करने का विधान है । उस स्थान के अधिष्ठाता देव या गृहस्थ स्वामी से पूछकर जाने और उस स्थान के स्वामी को वह स्थान सौंप देने के लिए 'आसिका' शब्द का उच्चारण करते हैं । आर्शीवादात्मक होने से भी इसे आसिका समाचार कहते हैं। अहिंसा महावत की दृष्टि से यह भी विधान है कि जिस वसतिका में ठहरें वह स्थान उष्ण या शीतल हो सकता है अतः जब भी वहाँ से बाहर निकलें तब उससे पूर्व अपनी पिच्छिका से अपने शरार का प्रमार्जन भी करना चाहिए ताकि शीतकाय और उष्णकाय के जीवों को परस्पर प्रतिकूल वातावरण से बाधा न हो । इसी तरह श्वेत, लाल या काले गुणवाली भूमियों में से किसी एक से गुजरकर दूसरी में प्रवेश हो तब कमर से नीचे प्रमार्जन करना चाहिए । अन्यथा विरुद्ध योनि के संक्रम से पृथ्वीकायिक जावों को और उस भूमि में उत्पन्न हुए त्रस जीवों को बाधा होती है । १. कंदरपुलिणगुहादिसु पवेसकाले णिसीहियं कुज्जा। तेहितो .णिग्गमणे तहासिया होदि कायव्वा मूलाचार ४।१३४. तथा और भी देखें-भावपाहुडटीका ७८ पृ० २२९, अनगारधर्मामृत ८।१३०. २. भगवती आराधना गाथा १५२ की विजयोदयाटीका पृष्ठ १९३ (सोलापुर संस्करण १९७८.) मूलाराधना टीका पृ० ३४४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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