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________________ विहार चर्या : २८९ और श्वेताम्बर-दोनों ही परम्पराओं में विधान के उल्लेख मिलते हैं । शिवार्य और अपराजितसूरी ने कहा है कि जल में प्रवेश करते समय पैर आदि में लगी हुई सचित्त और अचित्त कीचड़, धूल आदि को दूर कर देना चाहिए तथा जल से निकलकर जब तक पैर न सूखे तब तक जल के पास ही ठहरना चाहिए । वहाँ से तुरन्त जाना नहीं चाहिए। यदि बड़ी नदी को पार करना हो तो इस ओर (किनारे या पार) सिद्ध वन्दना अथवा कायोत्सर्ग करे । इस बात का भी ध्यान रखे कि श्रमण जब नाव पर चढ़े तब यह नियम कर ले कि जब-तक मैं नदी के पार न पहुँचूं तब-तक के लिए शरीर, भोजन और उपकरणों आदि सबका त्याग करता हूँ । इस प्रकार प्रत्याख्यान ग्रहण करके चित्त को समाहित करे तब नौका पर चढ़े और तट पर पहुँचकर कायोत्सर्ग करे । इसी प्रकार महाकांतार (बड़े जंगलों) में प्रवेश करते और उससे बाहर निकलते समय भी चारों प्रकार के आहार आदि का त्याग रूप नियम करने का विधान है । आचारांग में कहा कि पैरों से चलकर पार न किया जा सके-यदि इतना जल हो तो नाव में बैठकर नदी पार कर सकते हैं किन्तु वह नाव ऊर्ध्व, अधो एवं तिर्यग्गामिनी न हो । उत्कृष्ट एकाध योजन से अधिक लम्बी दूरी न हो तथा गृहस्थ उसे सहर्ष ले जाने के लिए तैयार हो तो विधिपूर्वक नाव पर साधु चढ़ सकते हैं । यदि रास्ते में भारभूत समझकर नाव का स्वामी साधु को जल में डालना चाहे तो उन्हें स्वयं उतर जाना चाहिए । किन्तु हाथों-पैरों द्वारा तैरना नहीं कल्पता । कदाचित् बहते-बहते स्वयं किनारा आ जाए तो बाहर निकल जाना चाहिए। साधु-साध्वी के निमित्त खरीदी गयी या उनके सत्कारकर्ता द्वारा तैयार की गई नाव से पार नहीं होते । नाव के मालिक की आज्ञा से नाव में बैठ सकते हैं। साधु को नाव चलाने या धक्का आदि देने, नाव के छेद बन्द करने आदि कार्यों को नहीं करना चाहिए । यदि नाव वाला साधु को पानी में फेंक दे तो उसे तैरकर किनारे पहुँचना चाहिए । पानी से निकलकर वह तब तक खड़ा रहे जब तक अपने आप उसका शरीर न सूख जाये । पैरों से चलकर पार करने योग्य नदी आदि को पार करने तक चारों प्रकार के आहार त्याग करने का आचारांग में भी विधान है। १. भ० आ० १५२. विजयोदया टीका सहित पृष्ठ १९३-१९४(सोलापुर संस्करण) , २. आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध अध्ययन ३ उद्देश्यक १-२ (अंगसुत्ताणि भाग १. पृष्ठ १४२-१४४. ३. अनगार-धर्मामृत : प्रस्तावना पृष्ठ १९. (पं० कैलाशचंद शास्त्री) ४. आचारांग २।३।२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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