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२८८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन अङ्गों को फैलाते समय निद्रा छोड़कर शय्या और शरीर का प्रतिलेखन और प्रमार्जन करना चाहिए।
रात्रि विहार का निषेध-प्रत्येक कार्य समय पर करने का श्रमणाचार में बहुत महत्व है । सूर्योदय के बाद से सूर्यास्त के पहले तक विहार करने का विधान है। इसके बाद जैसी भी स्थिति हो उसे रात्रि में प्रासुक स्थान में ठहरना आवश्यक है । श्रमण जहाँ रात्रि में ठहरे उसके आसपास निर्धारित सीमा तक आवश्यकता होने पर मल-मूत्र विसर्जन के लिए प्रासुक स्थान पर जा सकता है । मूलाचार में इसकी विधि भी बताई गई है ।२ कल्पसूत्र में कहा है साधुओं और साध्वियों को रात्रि में अथवा विकाल अर्थात् सान्ध्य समय में तथा सूर्योदय के पहले विहार करना नहीं कल्पता । बृहत्कल्प में भी रात्रि विहार का निषेध किया है। साथ ही यह भी कहा कि स्वाध्याय, ध्यान और मल-मूत्र विसर्जनार्थ बाहर जा सकते हैं किन्तु अकेला जाना नहीं कल्पता । क्योंकि रात्रि में पंथगमन करने में भी अनेक दोष हैं। भगवती सूत्र के उल्लेखों के आधार पर रात्रि विहार के निषेध का यह कारण भी है कि रात्रि में अप्कायिक सूक्ष्म जीवों को वृष्टि होती रहती है। दिन में गर्मी के कारण नीचे पहुंचने के पहले ही सूक्ष्म अप्काय नष्ट हो जाती है किन्तु रात्रि में नष्ट होने की सम्भावना कम रहने से नीचे गिरती है।' इन सबके अतिरिक्त रात्रि विहार न करने से श्रमण लोक निन्दा, अन्यान्य दुर्घटनाओं तथा अनेक विवादों आदि से बच जाता है और रात्रि विश्राम से दिन में विहार आदि की थकान से विश्रान्ति प्राप्त करता है । तथा सामायिक, प्रतिक्रमण आदि आवश्यकों को निर्विघ्न सम्पन्न करता है । नदी आदि जलस्थानों में प्रवेश तथा नाव-यात्रा
श्रमण को विहार करते समय अनेक प्रसंग ऐसे भी आते हैं जब नदी आदि जलस्थान पार करके आगे जाना आवश्यक हो जाता है ऐसी अवस्था में दिगम्बर १. दशवकालिक अध्ययन ४ सूत्र १८-२३, गाथा १-६ तथा दशवकालिक की
अगस्त्यसिंहचूणि पृष्ठ ९१-९२, जिनदासचूणि पृष्ठ १५८, १५९. हारिभद्रीय
टीका पृष्ठ १५६, १५७, (दसवेआलियंःटिप्पण ४।१२८ पृष्ठ १५९). २. मूलाचार ५११२६. (विशेष के लिए देखें : यही ग्रन्थ पृष्ठ ८३-८४. ३. नो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा राओ वा वियाले वा अद्धाण गमणाए
एत्तए-कल्पसूत्र सूत्र १३ पृ० ६९. ४. बृहत्कल्प ११४५, ४७. ५. जिसके बीच में ग्राम-नगर आदि कुछ भी न हों उसे पंथ कहते हैं । ६. संघदासगणि का बृहत्कल्पभाष्य गाथा ३०३८-३१००. ७. भगवई १।६।२५६. सूरियपदं पृष्ठ ४५.
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