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विहार चर्या : २८७
जहाँ गमन करने में जीवों को बाधा न हो अर्थात् श्रस और हरितकाय की बहुलता और पानी, कीचड़ की अधिकता जिस क्षेत्र न हो वह क्षेत्र देश-देशान्तर में अनियत विहारी साधु के विहार और सल्लेखना आदि के योग्य होता है ।" विहार योग्य प्रासुक मार्ग के विषय में वट्ट केर ने कहा है कि जो मार्ग बैलगाड़ी, हाथी की सवारी, डोली, रथ, घोड़े, ऊँट, गाय, भैंस, बकरी, स्त्री तथा पुरुष आदि के आवागमन से सदा व्यस्त रहता हो, सूर्यादि के आतप से व्याप्त तथा हल आदि से जोता गया हो ऐसे मार्ग और क्षेत्र विचरण के योग्य है । २
गमनयोग में अपेक्षित सावधानी
ईर्यासमिति के वर्णन प्रसंग में यह पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि विहार आदि के समय मुनि को किस प्रकार गमन करना या चलना चाहिए और उसमें किस प्रकार की सावधानी अपेक्षित हैं ? क्योंकि श्रमण की प्रत्येक क्रिया योगयुक्त होती है अत: उनकी गमन क्रिया गमनयोग कही जाती है । जीव हिंसा की विविध क्रियाओं के त्याग के साथ-साथ प्रत्येक जीवन-व्यवहार में सावधानी की भी पूरी आवश्यकता होती है । अतः गमन आदि करते समय श्रमण युग-प्रमाण भूमि को देखते हुए चले, बीज, घास, जल, पृथ्वी, त्रस आदि जीवों का परिवर्जन करते हुए चले । सरजस्क पैरों से अंगार, गोबर, कीचड़ आदि पर न चले । वर्षा, कुहासा गिरने के समय न चले। जोर से हवा बह रही हो अथवा कीट-पतंग आदि सम्पातिम प्राणी उड़ते हों उस समय न चले। ऊपर-नीचे देखता हुआ, बातें करता और हँसता हुआ न चले । वह हिलते हुए तख्ते, पत्थर, ईंट पर पैर रखकर कर्दम या जल को पार न करे। खड़े होने के लिए श्रमण सचित्त भूमि पर खड़ा न हो, जहाँ खड़ा हो वहाँ से खिड़कियों आदि की ओर न झाँके, खड़े-खड़े पैरों को असमाहित भाव से न हिलाये -डुलाए अर्थात् विक्षेप न करते हुए खड़े होना चाहिए । पूर्ण संयम से खड़ा रहे हरित्, उदक, उत्तिङ्ग तथा पनक पर खड़ा न हो । बैठने के लिए सचित्त भूमि या आसन पर न बैठे । (पिच्छिका से) प्रमार्जन किए बिना न बैठे । गलीचे, दरी आदि पर न बैठे । गृहस्थ के घर न बैठे । हाथपैर, शरीर और इन्द्रियों को नियंत्रितकर बैठे । उपयोगपूर्वक बैठे | बैठे-बैठे हाथ-पैरादि को अनुपयोगपूर्वक पसारना, संकोचना आदि अयतना है । शयन हेतु बिना प्रमाणित भूमि आदि पर न सोये । अकारण दिन में न सोये । सारी रात न सोये । प्रकाम (प्रगाढ़ ) निद्रा-सेवी न हो । पार्श्व ( करवट ) आदि बदलते समय या
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१. भा० आ० विजयोदया १५२.
२. मूलाचार ५।१०७-१०९.
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