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________________ २८६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन दशवकालिक में कहा है कि साधु विहार करते समय गृहस्थ को ऐसी प्रतिज्ञा न दिलाए कि यह शयन, आसन, उपाश्रय, स्वाध्याय भूमि ये सब मुझे ही तब देना जब मैं लौटकर आऊँ। इसी प्रकार भक्त-पान मुझे ही देना-यह प्रतिज्ञा भी न कराए । गाँव, कुल, नगर या देश में कहीं भी ममत्वभाव न करे।' विहार योग्य क्षेत्र तथा मार्ग ___ इस संसार में सूक्ष्म से सूक्ष्म और बड़े से बड़े सब प्रकार के अनन्तानन्त जीवों का निवास है । अतः हमारी हलन-चलन तथा अन्यान्य प्रवृत्तियों से अनेक प्रकार के जीवों की हिंसा हो जाती है-इसी बात को ध्यान में रखकर एक बार गौतम गणघर ने तीर्थंकर महावीर से पूछा कि जब जीवों की विभिन्न प्रवृत्तियों से किसी न किसी प्रकार के जीवों की हिंसा हो जाती है तब हम कैसी प्रवृत्ति करें अर्थात् वैसे चले ? कैसे खड़े हो ? कैसे बैठे ? कैसे सोये ? कैसे खाए ? कैसे बोलें ? जिससे पापबंध न हो। तब भगवान् महावीर बोले-यतनापूर्वक (अप्रमदाचार अर्थात् सावधानीपूर्वक) चलने, यतनापूर्वक खड़े होने, यतनापूर्वक बैठने, यतनापूर्वक सोने, यतनापूर्वक खाने और यतनापूर्वक बोलने वाला पापकर्म का बन्धन नहीं करता। तथा अयतनापूर्वक उक्त प्रवृत्तियों को करने वाला त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है, जिससे पाप-कर्म का बंध होता है। जो भिक्षु यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करते हुए दयादृष्टि से ही सभी प्राणियों को देखने वाला होता है उन्हें नवीन कर्मबंध नहीं होता तथा पूर्वकर्म नष्ट होते हैं। ' उपयुक्त आचार-विचार को ध्यान में रखकर श्रमण को योग्य क्षेत्र तथा मार्ग में विचरण करना चाहिए । संयमी को प्रासुक क्षेत्र और सुलभवृत्ति अर्थात् जहाँ शुद्ध आहार-जल आदि सहज रूप में उपलब्ध हों वह क्षेत्र स्वयं को और अन्यः मुनियों को सल्लेखना के योग्य समझकर-ऐसे क्षेत्रों में विहार करना योग्य है । १. न पडिन्लवेज्जा समणासणाई सेज्जं निसेज्जं तह भत्तपाणं । गामे कुले वा नगरे व देसे ममत्तभावं न कहिं चि कुज्जा ।। . -दशवकालिक द्वितीय चूलिका गाथा ८. २. कधं चरे कधं चिट्ठे कधमासे कधं सये। कधं भुंजेज्ज' भासिज्ज कधं पावं ण वज्झदि ।। जदं चरे जदं चिट्ठे जदमासे जदं सये। जदं भुंजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण बज्झइ ।।मूलाचार १०११२१-१२२. -दशव० ४।७-८. ३. दशवकालिक ४१-६. ४. मूलाचार १०।१२३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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