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विहार चर्या : २८५ धारक तथा सम्यक् लेश्यावाले बनते हैं। इस तरह सतत् अनियत विहार से जहाँ अनासक्त वृत्ति से युक्त रहते हुए अपनी आत्म साधना में निरन्तर वृद्धि होती है वहीं अधिकाधिक ज्ञानार्जन और जनकल्याण की भावना के कार्यान्वयन का योग मिलता है। विहारशील श्रमण के भाव और कत्र्तव्य ... विहारशील श्रमण के परिणाम विशुद्ध होते हैं। वे उपशांतकषाय युक्त, दैन्यभावरहित, उपेक्षाबुद्धियुक्त होने से उपसर्ग सहन करने में समर्थ होते हैं । माध्यस्थभाव, निस्पह एवं निभृत अर्थात कछुवे के सदृश अंग संकुचित करने आदि गुणों से युक्त तथा कामभोगादि में आदर रहित होते हैं। जैसे माता अपने पुत्रों के प्रति दयाभाव युक्त होती है वैसे श्रमण भी इस भूतल पर विहार करते हुए किसी भी प्राणी को कदापि पीड़ा नहीं देते अपितु सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति दया सम्पन्न होते हैं। इसीलिए पापभीरू श्रमण विहार करते हुए भी पापकर्मों से नहीं बंधते क्योंकि वे सावध क्रियाओं और परिणामों का सर्वथा त्याग करते हैं। इस तरह विहारशील श्रमण विशुद्ध दया सम्पन्न तथा विशुद्ध परिणामयुक्त होते हैं। कहा भी है-जो कल्पनीय (उद्गम आदि दोषों से शुद्ध आहारादिक) और अकल्पनीय विधि को जानता है, संसार से भयभीत संयमी जन जिसके सहायक हैं और जिसने अपनी आत्मा को ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचार विनय से युक्त कर लिया है, वह मुनि राग-द्वेष से दूषित लोक में भी राग-द्वेष से अछूता रहकर विहार करता है।४ मूलाचार में कहा है कि विहार करते हुए श्रमण को मार्ग में सचित्त (शिष्य आदि रूप), अचित्त (शास्त्रादि रूप) तथा मिश्र (पुस्तकादि सहित शिष्य)-इन तीनों प्रकार के जो कुछ भी द्रव्य प्राप्त हों, उन सबके ग्रहण करने के योग्य आचार्य होता है अर्थात् उन सब द्रव्यों का स्वामी अनेक गुणों से युक्त आचार्य होता है। अतः श्रमण को चाहिए कि मार्ग में प्राप्त सभी प्रकार के द्रव्यों को अपने आचार्य के लिए समर्पित कर दे । १. भगवती आगधना १४७, १४६, १४४. २. उवसंतादीणमणा उवक्खसीला हवंति मज्झत्था ।
णिहुदा अलोलमसठा अबिह्मि या कामभोगेसु ।। मूलाचार ९:३८. ३. वही, ९।३२, ३४. '४. कल्प्याकल्प्यविधिज्ञः संविग्नसहायको विनीतात्मा ।
दोषमलिनेऽपि लोके प्रविहरति मुनिनिरुपलेपः ।। प्रशमरति प्रकरण १३९. ५. जतेणंतरलद्धं सच्चित्ताचित्तमिस्सम दव्वं ।
तस्स य सो आइरिओ अरिहदि एवं गुणो सोवि ।। मूलाचार ४१५७.
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