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________________ २८४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन प्रशस्त रूप में करने का विधान है।' अतः अपरिग्रही मुनि को बिना किसी अपेक्षा के हवा की भांति लघुभूत होकर मुक्तभाव से ग्राम, नगर, वन आदि से युक्त पृथ्वी पर समान रूप से विचरण करते रहना चाहिए । विहार चर्या का महत्त्व : सम्यग्दर्शन की शुद्धि, स्थितिकरण, रत्नत्रय की भावना एवं अभ्यास तथा शास्त्रकौशल एवं समाधिमरण के योग्य क्षेत्र का अन्वेषण, तीर्थकरों के जन्म, निर्वाण आदि कल्याणक स्थलों के दर्शनों का सहज लाभ श्रमण को इस विहार चर्या अर्थात् अनियत विहार से प्राप्त होता है । शिवार्य ने कहा है-अनेक देश में विहार करने से क्षुधा-भावना, चर्या-भावना आदि का पालन होता है । अनेक देशों का परिज्ञान अर्थात् अन्यान्य देशों में मुनियों के भिन्न-भिन्न आचार का ज्ञान, विभिन्न भाषाओं में जीवादि पदार्थों के प्रतिपादन का चातुर्य प्राप्त होता है। अनेक देशों में विहार करते रहने से चर्या, भूख, प्यास, शीत और उष्ण का दुःख संक्लेश रहित भाव से सहन हो जाता है । वसति में ममत्त्व नहीं होता। संविग्नतर साधु (संसार का स्वरूप जानकर इस संसार में आगमन के प्रति जिसका मन अत्यन्त भीत है ऐसे साधु), प्रियधमतर साधु तथा अवद्यभीरुतर साधु (जो थोड़े से भी अशुभयोगों को नहीं होने देता वह साधु)-इन तीन प्रकार के साधुओं को देखकर सदा विहार करने वाला साधु स्वयं भी धर्म पर अतिशय प्रेम करता है और उसमें अधिक स्थिर धर्म को धारण करने वाला होता हैअनियतवास से परोपकार होता है अर्थात् परस्पर में एक साधु दूसरे विशिष्ट साधुओं को देखकर स्वयं भी विशिष्ट बनते हैं। अनियत विहारी मुनि उत्तम चारित्र के धारक होने से उनको देखकर अन्य मुनि भी उत्तम चारित्र एवं योग के १. अणिएववासो समुदाणचरिया अन्नायउंछं पइरिक्कयाय । अप्पोवही कलहविवज्जणा य विहारचरिया इसिणं पसत्था ॥ -दशव द्वितीय चूलिका गाथा ५.. २. मुत्ता णिराववेक्खा सच्छंदविहारिणो जहा वादो। हिंडंति णिरुन्विग्गा णयरायरमंडियं वसुहं ॥ मूलाचार ९।३१. ३. णाणादेसे कुसलो णाणादेसे गदाण सत्थाणं । अभिलाव अत्थकुसलो होदि य देसप्पवेसेण ॥-भ. आ० १४८. ४. धर्म के सम्यक् पालम से नये कर्मों का संवर होता है आगे पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा होती है तथा धर्म' इहलोक सुख और मोक्ष सुख देनेवाला है-इस प्रकार के धर्म और धर्मफल में जिनका चित्त सदा लीन रहे वे प्रियधर्मतर साधु हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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