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________________ विहार-चर्या विहार चर्या श्रमण जीवन की एक अनिवार्य और महत्त्वपूर्ण चर्या है क्योंकि बिना किसी विशेष कारण के वे स्थायी रूप से किसी नियत स्थान पर निवास नहीं करते ।' श्रमण को भारण्डपक्षी की तरह वन, अटवी और ग्रामानुग्राम आदि में अनासक्त एवं अप्रमत्त भाव से निरन्तर विचरण करते हुए अपनी साधना में लीन रहने का विधान है। वस्तुतः 'चर्या' का अर्थ मूलगुण और उत्तरगुण रूप चारित्र है। विहार चर्या के १-विहरण अर्थात् पैरों द्वारा चलनक्रिया या पाद-यात्रा की चर्या', २-जीवन चर्या' तथा ३-सम्यक रूप से समस्त यतिक्रिया करना' अर्थ किये गये हैं । मूलाचारवृत्ति में अनियतवास अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूप रत्नत्रय की विशुद्धि के लिए समान रूप से सभी स्थानों पर सतत् भ्रमण करते रहने को विहार चर्या कहा है । तथा शिवायं के अनुसार जो श्रमण वसतिका, उपकरण, गांव, नगर, गण और श्रावक जनों-इन सबमें सर्वत्र अप्रतिबद्ध (ममत्वरहित) रूप से रहना अनियत विहार है। अगस्त्यसिंह ने भी सदा एक स्थान में न रहने और सतत विहार करते रहने को अनियतवास कहा है।' इस प्रकार अनिकेतवास, समुदान चर्या, अज्ञात कुल में भिक्षा ग्रहण, एकान्तवास, उपकरणों की अल्पता अथवा अक्रोध भाव और कलह का वर्जन रूप विहार चर्या १. बृहत्कल्प भाष्य का० ११३६. २. भारण्ड-पक्खी व चरेऽप्पमत्तो-उत्तराध्ययन ४।६. ३. चरिया चरित्तमेव, मूलुत्तरगुण समुदायो-दशवै. जिनदासचूणि पृष्ठ ३७०. ४. विहरण विहारो, सो य मासकप्पाइ, तस्सविहारस्स चरणं विहारचरिया -वही पृ० ३७१. ५. दशवकालिक अगस्त्य० चूणि द्वितीय चूलिका गाथा ५. ६. विहरणं विहारः-सम्यक् समस्तयतिक्रियाकरणम् द्वादशकुलक विवरण. ७. विहारोऽनियतवासो दर्शनादिनिर्मलीकरण निमित्तं सर्वदेशविचरणम् -मूलाचारवृत्ति ९।३. ८. भगवती आराधना १५३ पृ. ३५०. ९. अणिययवासो वा जतो ण णिच्चमेगस्थ वसियव्वं किन्तु विहरितव्वं-दशवकालिक -अगस्त्य० चूणि द्वितीय चूलिका गाथा ५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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