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आहार, विहार और व्यवहार : २८१ पिण्ड, चिकित्सा-पिण्ड, कोप-पिण्ड, मान-पिण्ड, माया-पिण्ड, लोभ-पिण्ड, विद्यापिण्ड, मन्त्र-पिण्ड, चूर्ण-पिण्ड, योग-पिण्ड और पूर्व-पश्चात् स्तव-ये निशीथ (उद्दे० १२) में बतलाए गए हैं । परिवर्त का उल्लेख आयारचूला (१.२१) में मिलता है । अङ्गार, धूम, संयोजना, प्राभृतिका-ये भगवती सूत्र (७.१) में मिलते हैं। मुलकर्म दोष प्रश्नव्याकरण (संवर १.१५) में है। उद्भिन्न, मालापहृत, अध्वतर, शङ्कित, प्रथित, निक्षिप्त, पिहित, संहृत, दायक, उन्मिश्र, अपरिणत, लिप्त मौर छदित-ये दशवकालिक के पिण्डैषणा अध्ययन में मिलते हैं। कारणातिक्रान्त उत्तराध्ययन (२६.३२) और प्रमाणातिरेक भगवती (७.१) में मिलते हैं।
इन दोषों का प्रायः एकत्र विवेचन श्वेताम्बर परम्परा के ही पिण्डनियुक्ति (गाथा ९२-९३, ४०८-४०९, ५०२), प्रवचनसारोद्धार (गाथा ५६५-५६८) तथा पञ्चाशक (विवरण १३ गाथा ५-६, १८-१९ एवं २६) आदि अनेक ग्रन्थों में मिलता है।
आहार सम्बन्धी दोषों का उपर्युक्त विवेचन श्रमणाचार विषयक प्रायः सम्पूर्ण जैन ग्रन्थों में मिलता है, जिन्हें टालकर मुनि को आहार ग्रहण का विधान है । बौद्ध परम्परा के पालि दीघनिकाय के महासीहनादसुत्त में "अचेलकस्सप" नामक नग्न परिव्राजक (जो सम्भवतः एक जैन साधु है) के उल्लेख प्रसंग में उसके आत्म शुद्धि के मार्ग-स्वरूप तप या कठोर तपश्चर्या के अभ्यास की प्रशंसा की है । तथा जिसे भिक्षा-स्वरूप भोजन ग्रहण करने के लिए अनेक प्रतिबन्धों का पालन करने वाला बताया है । ये प्रतिबन्ध इस प्रकार हैं-..."""वह उससे जो उसे बुलाता है भिक्षा नहीं लेता। वह निमन्त्रण स्वीकार नहीं करता तथा वह विशेष रूप से उसी के लिए पकाये और लाये गये, भोजन पकाने वाले पात्र से तत्काल निकाले गये, दण्डधारी व्यक्तियों तथा भोजन करने वालों के बीच से लाये हुए, गर्भवती स्त्री तथा बच्चे को दूध पिलाती हुई स्त्री द्वारा लाये हुए तथा जहाँ मक्खियाँ भिनक रहीं है, उस स्थान से लाये हुए भोजन को नहीं स्वीकार करता। वह या तो केवल एक ही घर जाता है या भोजन का एकाही निवाला खाताहै"। वह एक-एक दिन बीच देकर"दो-दो दिन""सात-सात दिन"आधे-आधे मास पर भोजन करता है।'
दीघनिकाय के इस उल्लेख को हम जैन परम्परा के आहार सम्बन्धी उन दोषों का प्राचीन उल्लेख मान सकते जिन दोषों से रहित विशुद्ध आहार ग्रहण का विधान श्रमण विषयक जैन साहित्य में विशेष देखने को मिलता है। १. दीघनिकाय (१. सीलक्सन्धवग्गो) आमुख पृ० १४.
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