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________________ २८० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन संयोजनादि चार दोष : __ आहार के छयालीस दोषों में बयालीस दोषों का विवेचन किया जा चुका है। यहाँ भोजन सम्बन्धी ग्रासैषणा (परिभोगैषणा) के संयोजना, प्रमाण, अंगार और धूम-इन चार दोषों का विवेचन प्रस्तुत है १. संयोजना दोष :-भोजन और पानी आदि को परस्पर मिला देना संयोजना दोष है। जैसे ठण्डा भोजन उष्ण जल में मिला देना अथवा ठण्डे जल आदि पदार्थ उष्ण भात आदि से मिला देना। अन्य भी परस्पर विरुद्ध वस्तुओं को मिला देना संयोजना दोष है।' २. प्रमाण दोष :-अतिमात्र (अतिक्रमण करके) आहार लेना प्रमाण दोष है। व्यंजन आदि आहार से उदर के दो भाग पूर्ण करना और जल से उदर का तीसरा भाग पूर्ण करना तथा उदर का चतुर्थ भाग खाली रखना प्रमाणभूत आहार कहलाता है । इससे भिन्न जो अधिक आहार ग्रहण करते हैं उनके प्रमाण या अतिमात्र नामक आहार दोष होता है। प्रमाण से अधिक आहार लेने पर स्वाध्याय नहीं होता है, षट् आवश्यक क्रियाओं का पालन भी शक्य नहीं होता है । ज्वर आदि रोग भी उत्पन्न होकर संतापित करते हैं तथा निद्रा और आलस्य आदि दोष भी होते हैं ।२ ३. अंगार दोष :-गृद्धियुक्त आहार लेना अंगार दोष है। अर्थात् जो मूछित होता हुआ (आहार में गृद्धता रखता हुआ) आहार लेता है उसके अंगार नामक दोष होता है क्योंकि उसमें अतीव गृद्धि देखी जाती है। ४. धूम दोष :-बहुत निन्दा, क्रोध और द्वेष करते हुए आहार लेना घूम दोष है । अर्थात् यह भोजन विरूपक है, मेरे लिए अनिष्ट है-ऐसी निन्दा करके भोजन करना धम दोष है क्योंकि इसके अन्तर्गत अन्तरंग में संक्लेश देखा. जाता है। ____ आहार सम्बन्धी ये छयालीस दोष हैं। जिनका एकत्र विवेचन श्रमणाचार विषयक शौरसेनी प्राकृत के ग्रन्थों में मिलता है । अर्धमागधी मूल आगम साहित्य में भी इनका विस्तृत और स्पष्ट विवेचन मिलता है किन्तु एकत्र रूप में नहीं अपितु प्रकीर्ण रूप में, जैसे आधाकर्म, औद्देशिक, मिश्रजात, अध्वतर, पूति-कर्म . क्रीत-कृत, प्रामित्य, आच्छेद्य, अनिसृष्ट और अभ्याहृत-ये स्थानाङ्ग (९.६२) में बतलाए गए हैं । धात्रो-पिण्ड, दूती-पिण्ड, निमित्त-पिण्ड, आजीव-पिण्ड, वनीपक १-२. मूलाचार ६।५७ वृत्तिसहित. ३-४. वही ६।५८ वृत्तिसहित. ५. दसवेआलियं : अध्ययन ५ का आमुख पृष्ठ १७९ (जैन विश्वभारती, लाडनूं) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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