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________________ २७६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन विद्या, मन्त्र, चूर्णयोग और मूलकर्म ।' १. धात्री दोष-धात्री अर्थात् माता के समान बालक का लालन-पालन आदि कार्य करने वाली धाय । अतः धात्री कार्य करके या उसका उपदेश देकर आहार ग्रहण करना धात्री दोष है । धात्री के पाँच भेद हैं-(१) मार्जन धात्रीबालक को स्नान कराने वाली धाय, (२) मण्डन धात्री अर्थात् बच्चों को सजानेसंवारने वाली वाय, (३) क्रोडनधात्री अर्थात् बालकों को क्रीडा कराने, रमाने वालो धाय, (४) क्षीरधात्री-जो बालक को दूध पिलाती है वह स्तनपायिनी क्षीरधात्री, तथा (५) जन्मदेनेवाली या सुलानेवाली अम्बधात्री कहलाती है । जो इन पाँच प्रकार के धात्रो-कर्म करके या इनके उपदेश करके आहार आदि उत्पन्न कराते हैं उनको धात्री नामक उत्पादन दोष लगता है ।२ । १. दूत दोष-स्वग्राम से परग्राम अथवा. स्वदेश से परदेश में जलमग स्थलमार्ग अथवा आकाशमार्ग से जाते समय किसी सम्बन्धी या गृहस्थ के वचनों (सन्देश) को पहुँचा देना दूतकर्म दोष है । ३. निमित्त दोष-निमित्त ज्ञान के आठ भेद हैं-१. व्यंजन अर्थात् तिल. मशक आदि, २. अंग (शरीरादि के अवयव), ३. स्वर, ४. छिन्न (खड्ग आदि का प्रहार या कपड़े आदि का छेद होना या कट-फट-जाना), ५. भूमि, ६. अंतरिक्ष, ७. लक्षण और ८. स्वप्न । इन निमित्तों के द्वारा शुभाशुभ बतलाकर बदले में उनके द्वारा दिया गया आहार ग्रहण करना निमित्त दोष है। ४. आजीव दोष-जाति, कुल, शिल्प, तपःकर्म और ईश्वरता--इन्हें बतलाकर जो आजीविका करता है अर्थात् दाता द्वारा दिया गया आहार ग्रहण करता है तो उसे आजीव दोष होता है। ५. वनीपक बोष-कुत्ता,कृपण, अतिथि, ब्राह्मण, पाखण्डी, श्रमण (आजीवक) और कौवा-इन्हें दान आदि करने से पुण्य होता है या पाप ? ऐसा पूछे जाने पर 'पुण्य होता है'-यदि मुनि दाता के अनुकूल ऐसा वचन बोल देता है और दाता प्रसन्न हो उन्हें आहार देता है तथा मुनि उसे ग्रहण करता है तो दीनता आदि के कारण यह वनीपक दोष होता है। १. धादीदूदणिमित्ते आजीवं वणिवग्गे य तेगिंछे । कोधो माणी मायी लोही य हवंति दस एदे ।। पुदी पच्छा संथुदि विज्जामंते य चुण्णजोगे य । उप्पादणा य दोसो सोलसमो मूलकम्मे य ।। मूलाचार ६।२६,२७. २. मज्जणमंडणधादी हल्लावणखीरअंबधादी य । पचविधधादिकम्मेणुप्पादो धादिदोसो दु ।। वही ६।२८. ३. वही ६।२९. ४. वही ६।३०. ५-६ वही ६।३१-३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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