SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 326
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आहार, विहार और व्यवहार : २७५ १४. मालारोहण दोष-नसैनी (काठ को सीढ़ी), काठ आदि के द्वारा माल अर्थात् घर के ऊपरी भाग पर चढ़कर वहाँ पर रखी हुई पुआ आदि वस्तु को लाकर देना मालारोहण दोष है।' १५. आछेद्य दोष-संयत को भिक्षार्थ आया देख, राजा या चोर आदि से डरकर या निर्बल से छीनकर लाया हुआ आहार देना आच्छेद्य या आछेद्य दोष है। १६. अनीशार्थ दोष-अनीश अर्थात् अप्रधान, अर्थ (कारण) है जिस ओदनादिक भोज्य पदार्थ का वह भोजन अनीशार्थ कहलाता है। इसमें एक दान देता है और दूसरा निषेध करता है-इस प्रकार के अप्रधान दातारों से दिया हुआ आहार लेना अनीशार्थ दोष है । इसके दो भेद हैं-ईश्वर और अनीश्वर । ईश्वर अनीशार्थ दोष का अर्थ है जो स्वामी (ईश्वर) दान देना चाहता है, फिर भी नहीं दे पाता, अन्य लोग (अमात्य, पुरोहित आदि) विघ्न कर देते हैं । यदि ऐसा दान मुनि ग्रहण करते हैं तो उनके ईश्वर अनीशार्थ दोष होगा। इसके चार भेद है-सारक्ष, व्यक्त, अव्यक्त तथा संघाटक । जो आरक्षों के साथ रहे वह सारक्ष है । व्यक्त अर्थात् . प्रेक्षापूर्वकारी या बुद्धिमान, अव्यक्त अर्थात् अबुद्धिपूर्वक कार्य करने वाला तथा व्यक्ताव्यक्त रूप पुरुष संघाटक कहा जाता है। जिस दान का अप्रधान (अनीश्वर) पुरुष हेतु होता है वह दान अनीश्वर अनीशार्थ दोष है । इसके तीन भेद है-व्यक्त, अव्यक्त और संघाटक । वस्तुतः अनीश्वर दानादि का स्वामी नहीं होता किन्तु व्यक्त अर्थात् प्रेक्षापूर्वकारी (बुद्धिमान्) के द्वारा दिया गया आहार यदि मुनि ग्रहण करते हैं तो उनके व्यक्त अनीश्वर नामक अनीशार्थ दोष होता है। इसी तरह अव्यक्त अर्थात् अबुद्धिपूर्वक कार्य करने वाले के द्वारा दिया गया दान यदि मुनि लेते हैं तो उन्हें अव्यक्त अनीश्वर नामक अनीशार्थ दोष होता है । तथा संघाटक अर्थात् व्यक्ताव्यक्त अनीश्वर द्वारा दिया गया आहार लेने में संघाटक अनीश्वर नामक अनिशार्थ दोष है क्योंकि इसमें अपाय देखा जाता है । उत्पादन दोषः आहार के उत्पादन सम्बन्धी सोलह दोष हैं । धात्री, दूत, निमित्त, आजीव, वनीपक, चिकित्सा, क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, पूर्वस्तुति, पश्चात् स्तुति, १-२. मूलाचार ६।२३-२४. ३. अणिस हें पुण दुविहं इस्सरमह णिस्सरं चदुवियप्पं । __ पढमिस्सर सारखं वत्तावत्तं च संघाडं ।। मूलाचार ६।२५. वृत्तिसहित. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy