SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 325
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन १०. प्रामृष्य (ऋण) दोष-ओदन (भात) आदि कोई वस्तु दूसरे से ऋण (कर्ज) लेकर आहार में देना प्रामृष्य दोष है । इस प्रकार के कार्य को लघुऋण कहते हैं। इसके दो भेद हैं-वृद्धि (ब्याज) सहित और वृद्धि रहित । अर्थात् उधार लाये हुए अन्नादि को बाद में ब्याज समेत देना अथवा बिना ब्याज के उतना ही लौटा देना-ये दो भेद हैं। इसमें दाता को क्लेश और परिश्रम आदि करना पड़ता है अतः यह दोष है।' ११. परिवर्त (परावर्त) दोष-संयतों को देने के लिए एक अनाज के बदले दूसरा अनाज लेकर अर्थात् ब्रीहि के भात आदि से शालि के भात आदि लेकर आहार देना परिवर्त दोष है ।२ १२. अभिघट दोष-पंक्तिवद्ध सात घर के अतिरिक्त अन्य स्थान से अन्नादि लाकर मुनि को देना अभिघट दोष है । इसके दो भेद हैं-देशाभिघट तथा सर्वाभिघट । एक देश से आये हुए भात आदि देशाभिघट हैं। इसके आचिन्न और अनाचिन्न-ये दो भेद हैं। घर की सीधी पंक्ति से तीन अथवा सात घर से आयी हुई योग्य आहार रूप वस्तु आचिन्न (ग्रहणीय) है तथा इससे भिन्न अर्थात् यत्र-तत्र स्थित घरों से आयी हुई अन्न रूप वस्तु अनाचिन्न (अग्रहणीय) है, क्योंकि यहाँ-वहाँ से आने में ईर्यापथ शुद्धि न होने के कारण दोष देखा जाता है। सब ओर से आया हुआ भात आदि अन्न को सर्वाभिघट कहते हैं। इसके चार भेद हैं-स्वग्राम, परग्राम, स्वदेश और परदेश । जिस ग्राम में मुनि ठहरे हों वह स्वग्राम है, उससे भिन्न को परग्राम कहते हैं। पूर्व और अपर मुहल्ले से वस्तु का लाना प्रथम स्वग्राम नामक सर्वाभिघट दोष है। इसी तरह अन्य भेद भी जानना चाहिए । अर्थात् परग्राम से लाकर स्वग्राम में देना, स्वदेश से स्वग्राम में, परदेश से लाकर स्वग्राम अथवा स्वदेश में देना । इसमें प्रचुर मात्रा में ईर्यापथ दोष देखा जाता है। १३. उद्भिन्न दोष-ढके हुए या मुद्रा से बन्द वस्तुएँ (लाक्षा आदि से मुद्रित अथवा आजकल की तरह बन्द डिब्बों आदि में आने वाला खाद्य पदार्थ) जैसे औषधि, घी, शक्कर आदि को उनके बन्द भाजन (पात्रों) का ढक्कन या मुख खोलकर आहार में देना उद्भिन्न दोष है । १. मूलाचार ६।१७ वृत्ति सहित. २-३. मूलाचार ६।१८-२१ वृत्ति सहित. ४. पिहिदं लंछिदयं वा ओसहघिदसक्करादि जं दव्वं । उब्भिण्णिऊण देयं उब्भिण्णं होदि णादव्वं ॥ वही ६।२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy