________________
आहार, विहार और व्यवहार : २७३ ७. प्राभूत (प्रावर्तित) दोष :-काल की वद्धि या हानि करके आहार देना प्राभूत दोष है । इसे प्रावर्तित दोष भी कहते हैं। क्योंकि इसमें काल की हानि
और वृद्धि से परिवर्तन किया जाता है। इस तरह आहार देने में दातार को क्लेश, बहुविधात और बहुत आरम्भ आदि दोष देखे जाते हैं अतः यह दोष है । प्राभूत के दो भेद हैं-बादर और सूक्ष्म । काल की हानि-वृद्धि को अपेक्षा इन दोनों के भी दो-दो भेद हैं।'
दिवस, पक्ष, महीना और वर्ष का परावर्तन करके जो आहार दान दिया जाता है वह बादरप्राभृत हानि और वृद्धि को अपेक्षा दो प्रकार का है । जैसे शुक्ल पक्ष की अष्टमी को जो आहार देने का संकल्प था उसे अपकर्षण करके अर्थात कम (हानि) करके शुक्ला पंचमी को दे देना । अथवा शुक्ला पचमी को देने के संकल्प का उत्कर्षण (वद्धि) करके शुक्ला अष्टमी को आहार देना। ___ इसी प्रकार पूर्व, अपर तथा मध्य बेला का परावर्तन करके आहार देने से सूक्ष्मप्राभूत के दो भेद है । अर्थात् अपराह्न बेला में देने योग्य ऐसा कोई मंगल प्रकरण था किन्तु संयत के आगमन आदि के कारण उस काल का अपकर्षण करके पूर्वाह्न बेला में आहार दे देना । वैसे ही मध्याह्न में देना था किन्तु पूर्वाह्न अथवा अपराह्न में दे देना-यह सूक्ष्मप्राभृत दोष काल की हानि-वृद्धि की अपेक्षा दो प्रकार का हो जाता है।
८. प्रादुष्कार दोष :-आहारार्थ साधु के आने पर बर्तन आदि यहाँ-वहाँ ले जाना तथा उन्हें माँजना अथवा मण्डप आदि खोल देना, दीवालों को लीपपोत कर साफ करना, दीपक जलाना आदि प्रादुष्कार (प्राविष्करण) नामक दोष है। इसके संक्रमण और प्रकाशन-ये दो भेद हैं । भोजन और भाजन (बर्तन) आदि एक स्थान से अन्य स्थान पर ले जाना संक्रमण है । तथा बर्तन व भोजन आदि का प्रकाशन करना अर्थात् भस्म आदि से मांजना या जल से धोना अथवा उन बर्तनों को फैलाकर रख देना प्रकाशन है :
९. क्रीततर दोष :-आहारार्थ संयत मुनि के आ जाने पर (आहार देने के निमित्त) उसी समय अपनी अथवा पराई सचित्त वस्तुयें जैसे गाय, भैंस आदि देकर और उससे आहार लाकर साधु को देना । इसी तरह स्वमन्त्र या परमन्त्र अथवा स्व-विद्या या पर-विद्या किसी को देकर उसके बदले आहार लाकर मुनिको देना क्रीत दोष है। इसके द्रव्य और भाव-ये दो भेद है । इसमें सचित्त वस्तुयें 'द्रव्य' हैं तथा विद्या-मन्त्र आदि 'भाव' हैं ।
१. मूलाचार वत्तिसहित ६।८-१४. २. वही, ६।१५ वृत्ति सहित. . ३. वही, ६।१६ वृत्ति सहित.. ... ...
१८
..
..
...
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org