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आहार, विहार और व्यवहार : २७१
के संयोजना, प्रमाण, इंगाल और धूम-ये चार भेद हैं। इस प्रकार आहार सम्बन्धी कुल छयालीम (१६ + १६ + १० + ४ = ४६) दोष है । __ अधःकर्म दोष-मूलाचार तथा उसको वृत्ति में अधःकर्म (आधाकर्म) दोष को इन छयालीस दोषों से पृथक् तथा आठ प्रकार की पिण्डशुद्धि से बाह्य "महादोष" रूप कहा गया है । यह अधःकर्म छह जीवनिकायों का वध करने वाला होने से निकृष्ट व्यापार रूप है। और इसमें प्राणियों को विराधना होने से यह अधोगति का भी कारण है अतः इसे अधःकर्म कहा जाता है। क्योंकि गृहस्थाश्रित यह अधःकर्म महादोष पंचसूनाओं से सहित होता है । अर्थात् कंडणी (ऊखली), पेषणी (चक्की), चुल्ली (चूल्हा), उदकुम्भ (जल भरने के बड़े-बड़े अलिंजर आदि) और प्रमार्जनी (झाड़ या बुहारी)-ये पंचसूनायें हैं । इनके द्वारा कूटना, पीसना, रसोई करना, जल भरना और बुहारी देना-ये आरम्भ (हिंसा) युक्त क्रियायें होती हैं । इनसे छह जीवनिकायों को विराधना होती है। और इस प्रकार जीवों की विराधना तथा मारण आदि से स्व-पर निमित्त बनाया गया आहार अधःकर्म से दूषित है । वस्तुतः मुनि के निमित्त से बनाये हुए भोजन में पांच सूनाओं से प्राणियों की हिंसा होती है, इसलिए इसे आधाकर्म कहते हैं। जो जिलास्वाद लोलुपी मुनि ऐसा आहार करता है वह श्रावक होने के भी योग्य नहीं है । अतः छयालीस दोषों से तथा अधःकर्म से रहित निर्दोष आहार ग्रहण का विधान है। आहार सम्बन्धी दोषों के छयालिस भेद: __ आहार सम्बन्धी दोषों के छयालीस भेदों का विवेचन प्रस्तुत हैउदगम दोष :
" आहार सम्बन्धी उद्गम दोष के सोलह प्रकार है-औद्देशिक, अध्यधि, पूति, मिश्र, स्थापित, बलि, प्रावर्तित, प्रादुष्कार, क्रीत, प्रामृष्य, परिवर्तक, अभिघट, उद्भिन्न, मालारोह, अच्छेद्य और अनिसृष्ट ।४। १. गृहस्थाश्रितं पंचसूनासमेतं तावत्सामान्यभूतमष्टविधपिण्डशुद्धि बाह्यं महा
दोषरूपमधःकर्म कथ्यते । मूलाचारवृत्ति ६।३. २. कंडणी पीसणी चुल्ली उदकुंभं पमज्जणी।
बीहेदव्वं णिच्चं ताहिं जीवरासी से मरदि ।। मूलाचार १०१३५. ३. मूलाचार ६५, १०॥३६. ४. आधाकम्मुद्देशिय अज्झोवज्झेय पूदिमिस्से य ।
ठविदे बलि पाहुडिदे पादुक्कारे य कोदे य । पामिच्छे परियट्टे अभिहडमुभिण्ण मालारोहो । अच्छिज्जे अणिसटठे उग्गमदोसा दु सोलसिमे ।।
-मूलाचार ६॥३-४. वृत्ति सहित.
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