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२७० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
१. उद्गम दोष-गृहस्थ-दाता के द्वारा जिन अभिप्रायों आदि से दोष उत्पन्न होते हैं।
२. उत्पादन दोष-पात्र अर्थात् मुनि में होने वाले जिन अभिप्रायों से आहार आदि उत्पन्न होता है या कराया जाता है उस आहार के निमित्त होने वाले अनुष्ठान विशेष से लगने वाले दोष ।
३. एषणा (अशन) दोष-जिन पारिवेशक-परोसने वालों से भोजन किया जाता है उनकी अशुद्धियाँ अशन (एषणा) दोष हैं। अथवा साधु और गृहस्थ दोनों के द्वारा लगने वाले आहार सम्बन्धी दोष “एषणा" के दोष कहलाते हैं। ये विधिपूर्वक आहार न लेने-देने और शुद्धाशुद्ध की छानबीन न करने से पैदा होते हैं।
४. संयोजना दोष--परस्पर में विरुद्ध शीत-उष्ण, स्निग्ध-रूक्ष आदि पदार्थों को मिलाकर भोजन करने से या मिलाने मात्र से होने वाले दोष ।
५. प्रमाण दोष-आहार की मात्रा (प्रमाण) का उल्लंघन करना (मात्रा से अधिक भोजन ग्रहण करना) प्रमाण दोष है।
६. इंगाल (अंगार) दोष-'यह भोज्य बड़ा स्वादिष्ट है, मुझे कुछ और मिले तो बड़ा अच्छा रहे'-इस प्रकार आहार में अतिलालच से भोजन करने वाले साधु को जो दोष लगता है (जो कि अंगार के समान माना गया है) वह इंगाल या अंगार दोष है ।
७. धूम बोष-इगाल दोष से विपरीत अर्थात् 'यह भोज्य बड़ा खराब है, मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता'-इस प्रकार निंदा करके आहार लेने से होने वाले दोष, जो कि धुआँ के समान है-धूम दोष कहलाता है। . पिण्डनियक्ति में अंगार और धूम दोषों के विषय में कहा है कि जो इंधन जलते हुए अंगारदशा को प्राप्त नहीं होता वह धूम सहित होता है और वही इंधन जलने पर अंगार हो जाता है। इसी तरह यहाँ राग से ग्रस्त मुनि का भोजन अंगार है क्योंकि वह चारित्र रूपी ईंधन के लिए अंगार तुल्य है और द्वेष से युक्त साधु का भोजन सधूम है, क्योंकि वह भोजन के प्रति निन्दात्मक कलुषभाव रूप धूम से मिश्रित है।'
८. कारण दोष-विरुद्ध कारणों से आहार लेना कारण दोष है।
उपयुक्त आठ दोषों से रहित आठ प्रकार की पिण्डशुद्धि होती है । किन्तु इन आठ दोषों में भी कुछ के अनेक उपभेद हैं। जैसे उद्गम दोष के सोलह, उत्पादन दोष के सोलह, एषणा (अशन) दोष के दस तथा ग्रासैषणा (परिभोगैषणा) १. पिण्डनियुक्ति ६५७,६५८.
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