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आहार, विहार और व्यवहार : २६९.
पूरक आहार का परिमाण अट्ठाईस ग्रास प्रमाण होता है ।" एक कवल (ग्रास ) का प्रमाण एक हजार चावल' अथवा मुर्गी के एक अण्डे प्रमाण माना गया हैं । औपपातिक सूत्र में भक्तपान अवमौदर्य तप के प्रसंग में कहा है कि आठ ग्रास ग्रहण करने वाला अल्पाहारी, बारह ग्रास ग्रहण करने वाला अपार्द्ध अवमौदर्य, सोलह ग्रास वाला अर्द्ध अवमौदर्य, चौबीस ग्रास वाला पौन अवमौदर्य तथा इकतीस ग्रास ग्रहण करने वाले को किञ्चित अवमौदर्य होता है।
आहार (पिंड) सम्बन्धी दोष :
मुनियों की आहार चर्या जितनी कठोर है उससे भी ज्यादा कठिन है उसके दोषों को टालना । श्रमणधर्म के मूलभूत अहिंसा आदि मूलगुण तथा विविध प्रकार के उत्तरगुणों का निर्विघ्न पालन करना इसका उद्देश्य है । आहार या पिंड के उद्गम, उत्पादन, ग्रहण आदि में होने वाले दोषों की सम्भावना को आहार या पिंड सम्बन्धी दोष कहते हैं। मूलाचार में सभी पिण्ड दोष संक्षेप में द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार के बताये हैं । उद्गम आदि दोष सहित तथा अधः कर्म युक्त आहार द्रव्यगत पिण्डदोष कहा जाता है । भाव से अर्थात् आत्म-परिणामों की अशुद्धि से अशुद्ध आहार भावगत दोषयुक्त है । अतः भावशुद्धि भी यत्नपूर्वक करना चाहिए, क्योंकि भावशुद्धि से ही सर्व तपश्चरण और ज्ञान-दर्शन आदि व्यवस्थित होते हैं ।"
सामान्यतः आहार की विविधता के कारण आहार सम्बन्धी दोष भी अनेक : हो सकते हैं किन्तु मुख्य रूप से ये आठ प्रकार के दोष हैं – उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजन, प्रमाण, इंगाल (अंगार), धूम और कारण । इनका स्वरूप इस प्रकार है
१. बत्तीस किर कवला आहारो कुक्खिपूरणो होइ ।
पुरिसस महिलियाए अट्ठावीसं हवे कवला || भगवती आराधना २११ .. २. सहस्रतंदुलमात्र : कवल आगमे पठितः - मूलाचार वृत्ति ५।१३५.
३, ४. ओपपातिक सूत्र १९.
५. सम्वेति पिंडदोसो दव्वे भावे समासदो दुविहो ।
दव्वगदो पुण दव्वे भावगदो अप्पपरिणमो || मूलाचार सवृत्ति ६।६९..
६. उग्गम उप्पादण एसणं च संयोजणं पमाणं च ।
इंगालं धूम कारण अट्ठविहा पिण्डसुद्धी दु || मूलाचार ६२.
७. भूलाचारवृत्ति ६।२.
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