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________________ -२६८: मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन चाहिए। क्योंकि-आहार उदरस्थ होकर पाचन क्रिया द्वारा शरीर में प्राणधारणादि शक्ति पैदा करता है । तदनुसार उसकी संयम-यात्रा सधती है किन्तु मुनि को भी शरीर से कार्य लेने हेतु मात्रा से अधिक आहार कभी ग्रहण नहीं करना चाहिए । उत्तराध्ययन में कहा गया है कि जैसे प्रचण्ड पवन के साथ प्रचुर ईधन वाले वन में लगा दावानल शान्त नहीं होता, वैसे ही प्रकाम (यथेच्छ) भोजी की इन्द्रियाग्नि कभी शान्त नहीं होती। अतः ब्रह्मचर्य के लिए 'प्रकाम भोजन कभी भी हितकर नहीं है ।२ मनुस्मृति में भी कहा है-बहुत अधिक भोजन करना स्वास्थ्य, दीर्घायु, स्वर्गप्राप्ति और पुण्य में बाधक है । संसार इसका विरोध करता है, अतः इसका परित्याग करे ।' आ० वट्टकेर ने तो यहाँ तक कह दिया है कि प्रतिदिन परिमित और प्रशस्त आहार लेना श्रेष्ठ है, किन्तु अनेक बार आहार लेना या अनेक प्रकार उपवास करना ठीक नहीं है । अतः श्रमण को प्रमाण के अनुसार ही विशुद्ध आहार ग्रहण करना चाहिए । आहार-ग्रहण की मात्रा निर्धारित करते हुए कहा है कि पेट के चार भाग हैं। इनमें से दो भागों को अन्न से, तीसरे भाग को जल से पूरित करना चाहिए। तथा चतुर्थ भाग वायु संचरण के लिए खाली छोड़ देना चाहिए।" संयम-यात्रा को निर्विघ्न चलाने और शरीर को निरोग रखने की दृष्टि से भी यह महत्त्वपूर्ण है । जहाँ तक आहार ग्रहण की मात्रा या प्रमाण का प्रश्न है उसके लिए वट्टकर ने लिखा है कि साधारण पुरुष को अधिक से अधिक बत्तीस ग्रास (कवल) प्रमाण आहार ग्रहण करना चाहिए। भगवती आराधना में कहा है कि बत्तीस-ग्रास प्रमाण आहार पुरुष के पेट को पूरा भरने वाला होता है तथा स्त्रियों के कुक्षि १. रयणसार २३. २. उत्तराध्ययन ३२।११. ३. अनारोग्यम् अनायुष्यम् अस्व→ चातिभोजनम् । अपुण्यं लोकविद्विष्टं तस्मात् तत् परिवर्जयेत् ।। मनुस्मृति २०५७. ४. कल्लं कल्लं पि वरं आहारो परिमिदो पसत्थो य । य खमण पारणाओ बहवो बहुसो बहुविधो य ॥ मूलाचार १०१४७. “५. अद्धमसणस्स सम्वि जणस्स उदरस्स तदियमुदयेण । वाऊँ संचरठं चउत्थमवसंसये भिक्खू ॥ मूलाचार ६१७२. तथा देखिए काश्यपसंहिता, खिलस्थान, ५३-५४ । ६. बत्तीसा किर कवला पुरिसस्स दु होदि पयदि आहारो। एगकवलादिहिं तत्तो ऊणियगहणं उमोदरियं ॥ मूलाचार ५६१५३.... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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