SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 318
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आहार, विहार और व्यवहार : २६७ . स्थान पर खड़ा हो-ऐसे व्यक्तियों द्वारा साधु को कभी आहार-ग्रहण नहीं करना चाहिए। किन्तु श्रद्धा, सन्तोष, भक्ति, विज्ञान (आहारदान की विधि का पूर्ण ज्ञान) निर्लोभता. क्षमा और सत्त्व-इन सात गुणों से युक्त आहारदाता के द्वारा दिया गया आहार ग्रहण करना चाहिए । अकलंकदेव ने दाता की विशेषतायें इस प्रकार बतलाई है-पात्र में ईर्ष्या न होना, त्याग में विषाद न होना, देने की इच्छा करनेवाले में या जिसने दान दिया है, सबमें प्रीति होना, कुशल अभिप्राय, प्रत्यक्ष फल की आकांक्षा न करना, निदान नहीं करना, किसी से विसंवाद नहीं, करना आदि दाता की विशेषतायें हैं। मोक्ष के कारणभूत सम्यग्दर्शन आदि गुण जिनमें पाये जायें वे श्रमण सच्चे पात्र हैं।४ रयणसार में कहा है कि अविरत सम्यग्दृष्टि, देशव्रती श्रावक, महा-. व्रती मुनि, आगम में रुचि रखनेवाले और तत्त्व विचारकों के भेद से हजारों प्रकार के पात्र है किन्तु जिन मुनियों में उपशम, निरीहता, ध्यान, अध्ययन आदि महान् गुण होते हैं वे उत्तम पात्र कहे जाते हैं। ऐसे उत्तम पात्र को आहारदान के लिए उनका प्रतिग्रह, उच्चस्थान प्रदान, पाद प्रक्षालन, अर्चन, . प्रणाम आदि क्रियाओं को विधि कहते हैं । इस प्रकार विधिपूर्वक दाता द्वारा दिये गये अशन, पान, खाद्य, भोज्य, लेह्य एवं पेय आदि पदार्थों का अच्छी तरह प्रतिलेखन कर अर्थात् अच्छी तरह शोधकर श्रमण अपने पाणिपात्र से ग्रहण करते हैं। माहार को मात्रा (आहार-परिमाण) : आहारदाता का यह कर्त्तव्य है कि शीत या उष्ण काल या ऋतु के अनु- . सार तथा मुनि की वात, पित्त या कफ-प्रधान प्रकृति जानकर, परिश्रम, व्याधि, कायक्लेश तप और उपवास आदि देख-जानकर उन्हें तदनुसार आहार देना १. भ० ज० गाथा १२०६ की विजयोदया टोका पृष्ठ १२०४. २. श्रद्धा तुष्टिर्भक्ति विज्ञानमलब्धता क्षमा सत्त्वम् । यस्यते सप्तगुणास्तं दातारं प्रशंसन्ति ।। -संयम प्रकाश : पूर्वाद्ध किरण १. पृ० ९८ से उद्धृत.. ३-४. तत्त्वार्थवार्तिक ७।३९ पृ० ५५९. ५. रयणसार ११४, ११५. ६. तत्त्वार्थवार्तिक ७।३९। १ पृ० ५५९. ७. असणं जदि वा पाणं खज्जं भोजं च लिज्ज पेज्ज वा। पडिलेहिऊण सुद्धभुंजंति पाणिपत्तेसु ।। मूलाचार ९५४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy