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२६६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन आहार-ग्रहण-विधि : __एषणा समिति, स्थितभोजन, एकभक्त तथा अन्य मूलगुण एवं बत्तीस अन्तराय आदि के स्वरूप विश्लेषण के आधार पर श्रमण की आहार ग्रहण-विधि की जानकारी मिल जाती है । मुनि को अपने संकल्प आदि के अनुसार जब आहारग्रहण की विधि सिद्ध हो जाती है तब वे उस दाता श्रावक के घर में योग्य स्थान पर दीवाल, स्तम्भादि आश्रय के बिना अपने पैरों में चार अंगुल का अन्तर रखकर तथा समपाद खड़े हो पैर रखने, जूठन गिरने और दाता के खड़े होने रूप तीन प्रकार की भूमि शुद्धिपूर्वक अपने हाथों की अंजुलिपुट को ही पात्र बनाकर उसी (पाणिपात्र) से आहार ग्रहण करने का विधान है।' अतः मुनि को सद्गृहस्थ आदि दूसरे के घर में, नवकोटि परिशुद्ध अपने पाणिपात्र में, सद्गृहस्थ आदि रूप दूसरे के द्वारा दिया हुआ विशुद्ध आहार ग्रहण करने का विधान है ।२. आचार्य कुन्दकुन्द ने भी यही बात कही है कि परिग्रह के नाम पर श्रमण बाल के अग्रभाग के बराबर भी परिग्रह ग्रहण नहीं करते। वे एक ही स्थान पर खड़े होकर दूसरों के द्वारा दिया गया प्रासुक अन्न अपने पाणिपात्र से ग्रहण करते है। जबतक श्रमण खड़े होकर अपने हाथों को ही पात्र बनाकर भोजन करने की सामर्थ्य रखता है, तभी तक आहार की प्रवृत्ति करता है अन्यथा नहीं। इस प्रतिज्ञा के निर्वहणार्थ तथा इन्द्रिय-संयम और प्राणि-संयम के पालन हेतु स्थितः (खड़े होकर) भोजन का विधान है।
तत्त्वार्थवातिक में कहा है-जिस प्रकार भूमि, बीज आदि कारणों में गुणवत्ता होने से विशेष फलोत्पत्ति देखी जाती है उसी प्रकार विधिविशेष आदि से दान के फल में विशेषता होती है ।५ वस्तुतः दान की क्षमता और दान की पात्रता का आधार नवधाभक्ति है। अतः अपराजितसूरि ने कुछ माहार दाताओं के द्वारा प्रदत्त आहारदान के ग्रहण का मुनि को निषेध किया है, जैसे-बालक को स्तनपान कराती या गर्भिणी स्त्री, रोगी, अतिवृद्ध, बालक, पागल, पिशाच, मूढ,. अन्धा, गूगा, दुर्बल, भयातुर, शंकालु, अतिनिकटवर्ती एवं दूरवर्ती मनुष्य, लज्जा से पराङ्गमुखी या चूंघट युक्त स्त्री, जिसका पैर जूते पर रखा हो या जो ऊँचे
१. मूलाचार १।३४, भ० आ० गाथा १२०६ विजयोदयाटीका पृष्ठ १२ ४. २. भुंजंतिपाणिपत्ते परेण दत्तं परघरम्मि-मूलाचार ९।४५. ३. सुत्तपाहुड गाथा १७. ४. अनगार धर्मामृत ९.९३. ५. तत्त्वार्थवार्तिक ९।३९।६ पृष्ठ ५५९.
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