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________________ २६४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन 'साघु' कहलाने योग्य नहीं है।' इसीलिए रयणसार में कहा है कि हे भिक्षु ! यदि तुम्हारे हाथ पर रखा हुआ आहार तपे हुए लोहे के पिण्ड के समान शुद्ध है तो उसे दिव्य नौका के समान जानकर ग्रहण कर ।२ इस तरह विचारपूर्वक प्रवृत्ति करनेवाले मुनियों को आरोग्य तथा आत्मस्वरूप में सुस्थित रहने के लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, बल और वीर्य-इन छह बातों का पर्यालोचन करते हुए विशुद्ध आहार में प्रवृत्त होना चाहिए । आहार के अन्तराय: दोषों आदि की तरह आहार त्याग के कारणभूत बत्तीस अन्तरायों का भी निम्नलिखित प्रतिपादन किया गया है। १, काक-आहारार्थ गमन करते हुए या आहार लेते समय कोआ, वक आदि पक्षी वीट कर दें तो वह काक अन्तराय है। २. अमेध्य-आहार को जाते समय विष्ठा आदि अपवित्र मल पैर आदि में लग जाना । ३. छर्दि-वमन हो जाना। ४. रोधन-आहार जाते समय कोई रोक दे । ५. रुधिर-अपने या अन्य के शरीर से रक्तस्राव होता दिखना । ६. अश्रुपात-दुःख, शोक से अपने या पर के आँसू गिरना ।। ७. जान्वधः परामर्श-जंघा के नीचे भाग का स्पर्श हो जाना। ८. जानपरि व्यतिक्रम-घुटनों से ऊपर के अवयवों का स्पर्श हो जाना। ९. नाभ्यधो निर्गमन-दाता के घर का दरवाजा छोटा होने पर नाभि से नीचे शिर करके आहारार्थ जाना। १०. प्रत्याख्यात सेवना-जिस वस्तु का त्याग हो उसका भक्षण हो जाना। ११. जंतुवध-कोई जीव सामने ही किसी जीव का वध कर दे। १२. काकादि पिण्डहरण-आहार करते समय हाथ से कौआ आदि के द्वारा आहार का छिन जाना । १३. पाणि-पिण्डपतन-पाणिपात्र से ग्रास मात्र भी गिर जाना। १४. पाणी जन्तुवध-आहार करते समय किसी जन्तु का पाणिपुट में स्वयं आकर मर जाना। १. उत्तराध्ययन २०१४७. २. रयणसार ११३. ३. अनगार धर्मामृत ५।६५. ४. मूलाचार, ६१७६-८१ वृत्तिसहित. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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