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________________ आहार, विहार और व्यवहार : २६३ वाला लज्जावान् संयमी प्यास से पीड़ित होने पर सचित्त जल का सेवन न करे किन्तु प्रासुक पानी की गवेषणा करे । निर्जन मार्ग से जाता हुआ मुनि तीव्र प्यास से व्याकुल हो जाय तथा मुँह सूखने लगे तो भी दीनता रहित होकर कष्ट सहन करे।' इस प्रकार मुनि को प्रासुक जल के प्रयोग का विशेष ध्यान रखना भी आवश्यक है। आचार्य वट्ट केर ने स्पष्ट कहा है कि जिस द्रव्य से जीव निकल गए हों वह प्रासुक है । किन्तु यदि वह द्रव्य अपने (मुनि के) निमित्त तैयार किया गया है तो वह शुद्ध होते हुए भी अशुद्ध है । क्योंकि जैसे मछलियों के लिए जल में मादक वस्तु डालने पर उससे मछलियां ही विह्वल होती हैं, मेंढक नहीं होते । इसी तरह पर (दूसरे) के लिए बनाये गये भोजन आदि में से ग्रहण करते हुए भी मुनि विशुद्ध रहते हैं । अर्थात् मुनि अधःकर्म आदि दोष से दूषित नहीं होते। किन्तु जिन साधुओं की प्रवृत्ति अधःकर्म की ओर है, वे यदि प्रासुक (शुद्ध) द्रव्य के ग्रहण में अशुद्ध भाव करते हैं, तो वे कर्मबन्ध के भागी हैं। और जिनकी प्रवृत्ति शुद्ध आहार के अन्वेषण की ओर है उनको यदि कदाचित् अशुद्ध अधःकर्म युक्त आहार ग्रहण हो जाता है तो वह आहार भी उनके लिए शुद्ध है। क्योंकि खड़े होकर मौनपूर्वक वीरासन से तप, ध्यान आदि करने वाला श्रमण भी यदि अधःकर्म युक्त आहार में प्रवृत्त होता है तो उसके सभी योग, वन, शून्यघर, पर्वत की गुफा तथा वृक्षमल-इनमें निवास आदि सब निरर्थक हैं।" यहाँ तक कहा गया है कि यदि सिंह, व्याघ्रादि एक, दो या तीन मृगों को खाने पर 'नीच' कहलाते हैं तब अघःकर्म युक्त आहार में जीवराशि खाने वाले श्रमण भी नीच क्यों नहीं कहलायेंगे ?' उत्तराध्ययन में भी कहा गया है कि जो अनैष. णीय (सचित्त) आहार ग्रहण करता है, वह अग्नि की तरह सर्वभक्षी होने से १. उत्तराध्ययन २।४.५. २. पगदा असओ जह्मा तह्मादो दव्वदोत्ति तं दग्वं । फासुगमिदि सिद्धेवि य अप्पटकदं असुद्ध तु ॥ जह मच्छयाण पयदे मदणुदये मत्त्छया हि मज्जति । ण हि मंडूगा एवं परमट्टकदे जदि विसुद्धो ।। मूलाचार ६।६६-६७. ३. आधाकम्मपरिणदो फासुगदम्वेवि बंधगो भणिदो । सुदं गवेसमाणो आधाकम्मेवि सो सुद्धो ॥ मूलाचार १०१४३,६।६८. ४. वही १०॥३१-३२. ५. एक्को वावि तयो वा सीहो वग्यो मयो व खादिज्जो । दि खादेज्ज स णीचो जीवयरासि णिहंतूण ॥ वही १०।२९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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