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________________ २६२ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन नवकोटि से शुद्ध भोजन, जो कि बयालीस दोषों से रहित, संयोजना से हीन,. अंगार और धूमदोष से रहित, छह कारणों से सहित, क्रम से विशुद्ध और प्रमाण सहित विधिपूर्वक दिया जाता है ।। वस्तुतः आहारशुद्धि का सम्बन्ध एषणा समिति से है । अतः आहार के अन्वेषण, ग्रहण और उपभोग में संयम धर्म पूर्वक सावधानी आवश्यक है। उत्तराध्ययन में भी एषणा के तीन भेदों का उल्लेख है १. गवेषणा अर्थात् सोलह उद्गम और सोलह उत्पादन दोषों के शोधनपूर्वक शुद्ध आहार की खोज करना। २. ग्रहणषणा-एषणा के शंकित आदि दस दोषों के शोधनपूर्वक आहार लेना। ३. परिभोगैषणा-(ग्रासैषणा) संयोजना, प्रमाणातिक्रान्त, अंगार तथा धूम-इन चार दोषों को टालकर उपभोग करना चाहिए । - अपराजितसूरि ने सर्वथा त्याज्य दूषित आहार के विषय में कहा है कि मांस, मधु, मक्खन, बिना कटा फल, मूल, पत्र, अंकुर, कन्द तथा इन सबसे छुआ हुआ भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए । रस-गन्ध से विकृत, दुर्गन्धित, पुष्पित (फफूद युक्त), पुराना, जीव-जन्तु युक्त भोजन न तो किसी को देना चाहिए, न स्वयं खाना चाहिए और न छूना ही चाहिए । टूटे या फूटे हुए करछुरा आदि से दिया हुआ आहार ग्रहण न करे । कपाल, जूठे पात्र, कमल तथा केले आदि के पत्तों में रखा हुआ आहार भी ग्रहण न करें। इस प्रकार मुनि को सभी दोषों से रहित ही विशुद्ध आहार ग्रहण करना चाहिए । ___ जल-ग्रहण के विषय में तप्त (उष्ण) एवं प्रासुक जल का प्रयोग मुनियों के लिए विहित है । दशवकालिक में 'तत्तफासुय' (तप्त प्रासुक) तप्त अर्थात् पर्याप्त मात्रा में उबला होने पर जो प्रासुक (अचित्त) हो वैसे उष्णोदक के प्रयोग का विधान मिलता है । तथा अन्तरिक्ष और जलाशय अर्थात् शीतोदक, ओले, बर-- सात के जल और हिम के सेवन का निषेध किया गया है। मूलाचार में भी सचित्त जल के अनेक प्रकारों का उल्लेख है ।' स्वाभाविक जल भी सजीव होता है अतः उसका भी निषेध है । उत्तराध्ययन में कहा है-अनाचार से घृणा करने १. मूलाचार ६३६२-६५. २. उत्तराध्ययन २४।११-१२. ३. मूलाचार ६१५७-५८. ४. भगवती आराधना गाथा सं० १२०६ की विजयोदया टीका पृ० १२०४. ५. सीओदगं न सेवेज्जा सिलावुटुं हिमाणि य । उसिणोदगं तत्तफासुयं पडिगाहेज्ज संजए । दशवकालिक ८१६. . ६. मूलाचार ५।१३. For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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