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आहार, विहार और व्यवहार : २५९
आहार ग्रहण के योग्य घर :
पहले यह बताया गया है कि श्रमण मध्याह्न के समय संकल्पपूर्वक आहारार्थ गाँव या नगर में निकलते हैं । उन्हें यदि उनकी विधि के अनुसार योग्य दाता ने पड़गाहना किया तथा नवधा भक्ति पूर्वक आहार दिया तब वे आहार संबंधी सभी दोषों तथा अन्तरायों से रहित, खड़े-खड़े अपने करपुट से दिन में, एक बार प्रासुक तथा सीमित आहार ग्रहण कर लेते हैं, अन्यथा नहीं । इससे यह स्पष्ट है कि आहार चर्या के प्रति बड़ी सावधानी का ध्यान रखा जाता है । इस आहार चर्या के निर्वाह के लिए दाता श्रावक को भी आहार -संबंधी पूर्ण शुद्धता आदि विषयों का ज्ञान आवश्यक है ।
सरल (सीधी ) पंक्ति से तोन अथवा सात घर से आया हुआ प्रासुक ओदन • आदि को आचिन्न अर्थात् ग्राह्य बताया है । इसके विपरीत यत्र-तत्र के किन्हीं भी सात घरों से आया हुआ आहार अनाचिन्न ( अनाचीर्ण) अर्थात् अग्राह्य बताया गया है । " क्योंकि इसमें ईर्यापथशुद्धि नहीं रहती । संदेहयुक्त स्थान का प्राक - अप्राक की आशंका तथा सूत्रयुक्त ( शास्त्रोक्त ) या सूत्र - प्रतिकूल, तथा प्रतिषिद्ध, श्रमणों के उद्देश्य से बनाया गया एवं खरीदा गया आहार अग्राह्य है । भिक्षा के लिए मुनि मौनपूर्वक अज्ञात अनुज्ञातं अर्थात् परिचितअपरिचित, निम्न, उच्च तथा मध्यम कुलों (घरों) की पंक्ति में निकलते हैं, तथा भिक्षा ग्रहण करते हैं । वसुनन्दि के अनुसार यहाँ निम्न ( नीच), उच्च और मध्यम कुलों का अर्थ दरिद्र, धनी एवं मध्यम गृहस्थों के घरों की पंक्ति में समान रूप से भिक्षार्थ भ्रमण करना किया है । ४
णिच्चच्च मज्झिमकुलेसु - वट्टकेर के इसी कथन के समान भाव के रूप में भगवती आराधना की विजयोदया टीका में 'ज्येष्ठ - अल्प- मध्यमानि सममेवाटेत्' अर्थात् बड़े, छोटे और मध्यम कुलों (घरों) में एक समान भ्रमण करे - अर्थ किया है ।" दशकालिक चूर्णि में सम्बन्धियों के समवाय या घर को कुल कहा गया १. उज्जु तिहि सत्तहि वा घरेहि जदि आगदं दु आचिणं ।
परदो वा तेहि भवे तब्विवदं अणाचिण्णं || मूलाचार ६।२०. २. उद्देसिय कोदयडं अण्णादं संकिदं अभिहडं च ।
सुपडिकूडाणि य पडिसिद्धं तं विवज्जंति ।। वही ९।४६. ३. अण्णादमणुण्णादं भिक्खं णिच्चुच्चमज्झिमकुले ।
घरपतिहि हिडंति य मोणेण मुणी समादिति ।। वही ९।४७. ४. नीचोच्चमध्यमकुलेषु दरिद्रेश्वरसमानगृहिषु गृहपंक्त्या हिडंति पर्यटंति । - वही, वृत्ति ९।४७.
५. मूलाचार ९१४७, भ० आ० विजयोदया टीका १२०६, पृ० १२०४.
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