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________________ २५८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन इसी प्रकार पात्र (भाजन), दाता आदि अनेक प्रकार के संकल्प (अभिग्रह या अवग्रह) अपनी शक्ति के अनुसार ग्रहण करके आहारार्थ गमन करना चाहिए । संकल्पों के पूर्ण होने पर यदि भि -लाभ होता है तो प्रसन्नता नहीं और भिक्षा न मिलने पर दुःखी नहीं होना चाहिए। क्योंकि साधु तो दुःख-सुख दोनों में आकुलता रहित मध्यस्थ रहता है। वह भिक्षा लाभ के लिए किसी सद्गृहस्थ की प्रशंसा या उनसे याचना नहीं करता । अयाचक वृत्ति से बिना किसी संकेत या आवाज किये, मौनपूर्वक भ्रमण करता है। किसी से दोनतापूर्वक यह नहीं कहता कि मुझे भिक्षा दो । न दीन या कलुष वचन बोलता है, अपितु भिक्षालाभ न होने पर मौनपूर्वक लौट आता है।' श्रमण भिक्षाचर्या के लिए निकलने पर अपना आगमन सूचित करने के लिए अस्पष्ट शब्दादि के संकेत नहीं करता, अपितु बिजली को चमक के सदृश अपना शरीर मात्र दिखा देना ही पर्याप्त समझता है ।२ यदि श्रावक पड़गाहना करे तथा संकल्पानुसार विधि मिल जाय तो परोपरोध रहित घर में, आने-जाने का मार्ग छोड़कर, श्रावकों द्वारा प्रार्थना करने पर, वहीं खड़ा हो जहाँ से कि दूसरे साधु भी खड़े होकर भिक्षा प्राप्त करते हैं । खड़े होने का स्थान समान और छिद्ररहित देखकर अपने दोनों पैरों में चार अंगुल का अन्तर रखकर निश्चल खड़े होना चाहिए। जिस श्रावक के यहाँ मुनि को आहार की विधि मिलती है वे पिच्छि और कमण्डलु को वामहस्त में एक साथ धारण करते हैं और दक्षिण कन्धे पर पंचांगुलि मुकुलित दाहिना हाथ रखकर आहार-स्वीकृति व्यक्त करते हैं । श्रावक जब देखता है कि मुनिराज के संकल्पानुसार आहार-विधि उसके यहाँ मिल गयी है, तब वहाँ स्थित मुनिराज की तीन बार परिक्रमा करता है, ततः मनशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि, आहारशुद्धि कहकर उन्हें आहारार्थ घर में प्रवेश के लिए आग्रह करता है । सचित्त, तंग, गन्दे व अन्धकारयुक्त स्थान में श्रमण प्रवेश नहीं करते क्योंकि संयम-विराधना की आशंका रहती है। १. मूलाचार ९५०-५२. २. विद्युदिव स्वां तनं च दर्शयेत्-भगवती आराधना विजयोदया १२०६ । ३. पिच्छं कमण्डलु वामहस्ते स्कन्धे तु दक्षिणम् । हस्तं निधाय संदृष्टया स व्रजेत् श्रावकालयम् ॥ -धर्मरसिक १२।७० पृ० ३५४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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