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आहार, विहार और व्यवहार : २५७
उसी से लौटते हुए यदि भिक्षा मिलेगी तो ग्रहण करूँगा अन्यथा नहीं । २. ऋजु - वीथि सीधे मार्ग से जाने पर भिक्षा मिली तो ग्रहण करूँगा अन्यथा नहीं | ३. गो- मूत्रिका - - गाय या बैल के रास्ते में चलते-चलते मूत्र त्याग करने से जैसे बलखाते हुए आकार बनता जाता है वैसे ही बाएँ पार्श्व से दाएँ पार्श्व के घर और दायें से बायें पार्श्व जाते हुए घर में भिक्षा मिली तो ग्रहण करूंगा अन्यथा नहीं । ४. पेल्लवियं (पेटा) - वस्त्रादि रखने के लिए बांसदल आदि से निर्मित ढक्कन सहित चौकोर सन्दूक की तरह चौकोर अर्थात् बीच के घरों को छोड़ चारों ओर समश्रेणी स्थित घरों में भ्रमण करते हुए भिक्षा मिली तो ग्रहण करूँगा अन्यथा नहीं । ५. शंबूकावर्त - शंख के आवर्ती की तरह भिक्षाटन करना । ६. पतंगवीथी — पतंगों की पंक्ति के अनियत क्रम से भ्रमण या उड़ने के समान भ्रमण करते हुए भिक्षा मिली तो लेना अन्यथा नहीं । ७. गोयरिया (गोचरी) - - गोचरी नामक भिक्षा के अनुसार भ्रमण करते हुए भिक्षा मिलेगी तो ग्रहण करूंगा अन्यथा नहीं । ८. पाटकइसी पाटक ( फाटक या मुहल्ला ) में प्रवेश करके मिली भिक्षा ग्रहण करूँगा, अन्य में नहीं । एक ही पाटक में प्रवेश करूँगा या दो में ही प्रवेश करूँगा इस प्रकार का संकल्प लेना । ९. नियंसण - अमुक घर के परिकर से लगी हुई भूमि में भिक्षा मिली तो स्वीकार करूँगा, घर में प्रवेश नहीं करूँगा । कुछ ग्रन्थकारों का कथन है कि पाटक ( मुहल्ला ) की भूमि में ही प्रवेश करूँगा, घरों में नहीं — इस संकल्प को पाटक- निवसन कहते हैं । १०. भिक्षा-परिमाण -- एक या दो वार में जो परोसा गया उतना ही ग्रहण करूँगा अधिक नहीं । ११. दातृ-ग्रास (देय) परिमाण - एक या दो दाता के ही द्वारा देने पर भिक्षा ग्रहण करूँगा अथवा दाता के द्वारा लाई गई भिक्षा में से इतने ही ग्रास ग्रहण करूँगा - ऐसा परिमाण करना । १२. पिण्डेषणा - पिण्डरूप भोजन ही ग्रहण करूँगा । १३. पानंषणा - जो बहुत द्रव होने से पीने योग्य होगा वही ग्रहण करूँगा ।
इसी प्रकार यवागू, पुग्गलया ( चना, मसूर आदि धान्य) संसृष्ट-शाक, कुल्माष आदि से मिला हुआ, फलिहा - मध्य में ओदन (भात) और उसके चारों ओर शाक रखा हो वैसा आहार, परिखा - मध्य में अन्न तथा इसके चारों ओर व्यंजना रखा हो वैसा आहार, पुष्पोपहित - व्यंजनों के मध्य पुष्पावली के समान सिक्थ ( चावल ) रखा हो, शुद्ध गोपहित - शुद्ध अर्थात् बिना कुछ मिलाये अन्न से उपहित अर्थात् मिले हुए शाक व्यंजन आदि । लेपकृत - जिससे हाथ लिप्त हो जाए, अलेपकृत -- जिससे हाथ लिप्त न हो । पानक- - सिक्थ रहित और सिक्य सहित (पानक) ऐसा भोजन मिलेगा तो ग्रहण करूँगा अन्यथा नहीं - इस प्रकार के संकल्पपूर्वक आहारार्थ गमन करना चाहिए ।
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