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मूलाचार में पाई जाने वाली नियमसार की इन गाथाओं को डॉक्टर ए. एन. उपाध्ये ने परंपरागत ही स्वीकार किया है अतएव अमुक आचार्य के पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती होने का प्रश्न नहीं उठता। बट्टकेर और कुन्दकुन्द में कौन पूर्ववर्ती :
यहाँ वट्टकेर और कुन्दकुन्द में कौन पूर्ववर्ती और कौन उत्तरवर्ती ? इस सम्बन्ध में दो शब्द कह देना अनावश्यक न होगा । सर्वप्रथम यह बात ध्यान देने योग्य है कि वट्टकेर ने मूलाचार में किसी भी प्रसंग पर कुन्दकुन्द अथवा उनकी परम्परा द्वारा स्वीकृत किसी मान्यता का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से उल्लेख नहीं किया, जबकि उन्होंने आवश्यक नियक्ति आदि सिद्धान्त ग्रन्थों तथा मान्यताओं का स्पष्ट उल्लेख किया है। इससे पता चलता है कि कुन्दकुन्द की रचनायें वट्टकेर के समक्ष नहीं थीं। लगता है कि अचेलकता एवं स्त्रीमुक्ति के प्रश्नों को लेकर दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय में जो तीव्र मतभेद ह आ वह बट्टकेर के काल तक नहीं हुआ था, अतएव उन्होंने इन प्रश्नों को लेकर कहीं कोई चर्चा करना आवश्यक नहीं समझा । आचार्य कुन्दकुन्द ने स्त्री को दीक्षित होने तक का निषेध किया है। "वह अचेलकत्व धारण करने के अयोग्य है क्योंकि उसकी शारीरिक रचना ही इस प्रकार की है। उसकी योनि, स्तनान्तर, नाभि और कक्षप्रदेश सक्ष्म जीवों की उत्पत्ति का स्थान है, उसका चित्त चंचल रहता है और उसमें अपवित्रता का वास है, उसे मासिकधर्म होता है तथा वह किसी बात पर एकाग्रता से विचार कर सकने में असमर्थ है" [ सुत्त पाहुड, २२-२५)। और कहने की आवश्यकता नहीं कि अचेलकत्व को उन्होंने मोक्ष प्राप्ति के लिये अनिवार्य माना है ।
वटकेर और कन्दकन्द द्वारा प्रतिपादित षडावश्यकों के नाम और क्रम दोनों में जो भिन्नता है, वह भी विचारणीय है । वट्टकेर के अनुसार, सामायिक, चविंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग के नाम गिनाये गये हैं, जबकि कुन्दकुन्द क्रमानुसार प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना, कायोत्सर्ग, सामायिक और परमभक्ति का उल्लेख करते हैं ।
कहा जा चुका है कि जर्मन विद्वान् लॉयमान ने वट्टकेर को कुन्दकुन्द का पूर्ववर्ती स्वीकार किया है। पंडित फलचन्द जी शास्त्री ने अपनी सर्वार्थसिद्धि की प्रस्तावना में वट्टकेर को कुन्दकुन्द के समकालीन ही माना है
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