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आहार, विहार और व्यवहार : २५५ हुए हों, चरण-निक्षेप अधिक अन्तराल से न हो, शरीर विकार रहित हो, सिर थोड़ा झुका हुआ हो, मार्ग में कीचड़ और जल न हो तथा त्रसजीवों और हरितकाय की बहुलता न हो । वह इस प्रकार गमन करे ताकि खाते-पीते पक्षी और मृग भयभीत न हों तथा वे अपना आहार छोड़कर न भागें। आवश्यक होने पर पिच्छिका से अपने शरीर का प्रतिलेखन करे । तुष, गोबर, राख, भूसा और घास के ढेर से तथा पत्ते, फल, पत्थर आदि से बचते हुए चलना चाहिए । कोई निन्दा करे तब मुनि को क्रोध नहीं करना चाहिए तथा पूजा करे तो प्रसन्न नहीं अपितु समभाव से युक्त होना चाहिए।'
मूलाचारवृत्ति में आहारार्थ गमन विधि बताते हुए कहा है कि सूर्योदय की जब दो घड़ी बीत जाये तब देववन्दना करने के पश्चात् श्रुतभक्ति और गुरुभक्तिपूर्वक स्वाध्याय को ग्रहण करके सिद्धान्त आदि की वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, परिवर्तन आदि करे । जब मध्याह्नकाल होने में दो घड़ी समय शेष रहे तब आदर के साथ श्रुतभक्तिपूर्वक स्वाध्याय को समाप्त करे। वसतिका से दूर जाकर समितिपूर्वक मल-मूत्रादि बाधा दूर करे । तब शरीर को पूर्वापर देखकर हाथ-पैर आदि का प्रक्षालन करके, कमण्डलु और पिच्छिका ग्रहण करके मध्याह्न काल की देववन्दना करे। तत्पश्चात् योग्य समय जानकर आहारार्थ प्रवेश करना चाहिए।२
विजयोदया टोका में भी कहा गया है कि भिक्षा और भूखके समय को जानकर अवग्रह अर्थात् आहार के लिए विधि हेतु संकल्प या प्रतिज्ञा ग्रहण करके ईर्यासमितिपूर्वक ग्राम, नगर आदि में मुनि को प्रवेश करना चाहिए । वहाँ अपना आगमन जताने (बतलाने) के लिए याचना या अव्यक्त शब्द न करे। बिजली की तरह अपना शरीर मात्र दिखला दे। मुझे कोन निर्दोष भिक्षा देगा ऐसा भाव न करे । अपितु जीव-जन्तु से रहित, दूसरे के द्वारा रोक-टोक से रहित, पवित्र स्थान में गृहस्थ द्वारा प्रार्थना (पड़गाहना) किये जाने पर ठहरे। द्वार पर सांकल लगी हो या कपाट बन्द हों तो उन्हें न खोलें । बालक, बछड़ा, मेढा और कुत्ते को लाँधकर न जावे । जिस भूमि में पुष्प, फल और बीज फैले हों उस पर से न जावे । तत्काल लीपी गई भूमि पर न जावे । जिस घर में अन्य भिक्षार्थी भिक्षा के लिए खड़े हों उस घर में प्रवेश न करे। जिस घर के कुटुम्बी घबराये हों, जिनके मुख पर विषाद और दीनता हो वहाँ न ठहरे। भिक्षादान भूमि से आगे न जावे । गोचरी को जाते हुए १. म० आ० गाथा १२०६ की विजयोदया टीका पृ० १२०४. २. मूलाचार वृत्ति ५११२१ पृ० २६१-२६२. ३. भगवती आराधना गाथा १५० की विजयोदया टीका पृ० ३४४. ४. वही, गाथा १२०६ को विजयोदया टीका पृ० १२०४.
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