SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 305
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन के प्रति शंका में पड़कर आहार-ग्रहण करते हैं उनको रात्रि-भोजन ग्रहण का दोष लगता है।' रात्रिभोजन से पांच महाव्रत भंग होते हैं और अष्ट प्रवचनमाता के पालन में मलिनता आती है । यदि मुनि रात्रि में आहारार्थ निकले तो गृहस्थों या किसी के भी मन में यह शंका उत्पन्न होती है कि मुनि-वेश में यह कोई चोर-उचक्का तो नहीं है ? इसके साथ ही आत्म-विपत्ति के भी अनेक 'प्रसंग आते हैं। अतः महाव्रतों की रक्षा, अष्टप्रवचनमाता तथा महावतों की पच्चीस भावनाओं के प्रतिपालन हेतु रात्रि-भोजन का त्याग तो प्रारम्भिक कर्तव्य है। इस प्रकार भिक्षागमन के योग्य काल को छोड़कर अन्य समय या विकाल में आहारार्थ निकलना निषिद्ध है । दशवकालिक में यह भी कहा है कि भिक्षा का काल होने पर भी यदि वर्षा हो रही हो, कुहरा फैला हो, महावात (आँधी) चल रही हो, भ्रमर, कीट, पतंग आदि तिर्यक् सम्पातिम जीव ठा रहे हों तब मुनि को भिक्षा के लिए नहीं जाना चाहिए। इस प्रकार आहारार्थ-गमन के लिए उपयुक्त समय का विवेक बहुत आवश्यक है। आहारार्थ गमन-विधि: जितना महत्त्व किसी भी अच्छे कार्य का ोता है, उतना ही महत्त्व उसकी विधि का रहता है। विधिपूर्वक किया गया कार्य ही सार्थक हुआ करता है। अतः आहारार्थ गमन करने वाले मुनि को इन पाँच मौलिक बातों की रक्षा अनिवार्य है-१. आज्ञा-जिनशासन की रक्षा एवं उसकी आज्ञा का पालन, २. स्वेच्छावृत्ति का त्याग, ३. सम्यक्त्वानुकूल आचरण, ४. रत्नत्रय स्वरूप आत्मा की रक्षा तथा ५. संयम रक्षा । इन पांचों में से किसी में भी किञ्चित दोष का प्रसंग आए या बाधा की सम्भावना हो तो मुनि को तत्काल आहार का त्याग कर देना चाहिए। भिक्षा-चर्या में प्रविष्ट हुए मुनि मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, और कायगुप्ति रूप त्रिगुप्ति, मूलगुण; उत्तरगुण, शील, संयम आदि की रक्षा करते हुए तथा शरीर से वैराग्य, संग (परिग्रह) से वैराग्य और संसार से वैराग्य रूप निर्वदत्रिक का चिन्तन करते हुए विचरण करते हैं । विजयोदया में कहा है कि आहारार्थ गमन के समय मुनि को आगे-आगे चार हाथ प्रमाण (युगान्तरमात्र) भूमि देखते हुए चलना चाहिए । गमन के समय हाथ लटकते १. दशाश्रुतस्कन्ध २।३. २. मूलाचार ५।९९, ९८. ३. दशवकालिक ५।१४८. ४. आणा अणवत्थावि य भिच्छत्ताराहणादणासो य। संजमविराधणावि य चरियाए परिहरेदव्वा ॥ मूलाचार ६७५ ५. वही, ६७४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy