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________________ - २५२ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन या साधु दानभक्त (दाता द्वारा दिये जाने वाले निर्दोष आहार) की एषणा में उसी प्रकार रत रहते हैं जैसे भ्रमर पुष्पों में वस्तुतः भ्रमर (मधुकर) अवधजीवी होता है । वह अपने जीवन निर्वाह के लिए किसी प्रकार का समारम्भ, उपमर्दन या हनन नहीं करता । वैसे ही श्रमणसाधक भी अवधजीवी हो, किसी तरह का पचन- पाचन और उपमर्दन न करे । मधुकर पुष्पों से, स्वभावसिद्ध रस ग्रहण करता है । वैसे ही श्रमण - साधक गृहस्थ के घरों से जहाँ आहार-जल आदि स्वाभाविक रूप से बनते हैं, प्रासुक आहार है । इसी तरह मधुकर उतना ही रस ग्रहण करता है लिए आवश्यक होता है, वैसे ही श्रमण संयम - निर्वाह के ही आहार ग्रहण करे । इस प्रकार श्रमण को भ्रामरी वृत्ति से आहार ग्रहण की बात कहकर यह - बताया गया है कि अहिंसा धर्म की पूर्ण आराधना करने वाला श्रमण अपने जीवन-निर्वाह के लिए भी हिंसा न करे, यथाकृत आहार ले तथा जीवन को - संयम और तपोमय बनाकर धर्म और धार्मिक की एकता स्थापित करे । २ - आहार का समय : सूर्योदय के तीन घड़ी (नालीत्रिक), बाद (साधारणतया चौबीस मिनिट की एक घड़ी मानी जाती है) और सूर्यास्त के तीन घड़ी शेष रहने पर अर्थात् - सूर्यास्त होने से तीन घड़ी पूर्व तक का काल मुनियों के आहार ग्रहण का समय माना गया है । आहार के इस काल में एक मुहूर्त में आहार ग्रहण उत्कृष्ट काल या उत्कृष्ट-आचरण है । दो मुहूर्त में मध्यमकाल या - तथा तीन मुहूर्त में आहार ग्रहण जघन्य काल या जघन्य है । ३ एकभक्त मूलगुण के अन्तर्गत इसी विधान की चर्चा करते हुए भोजनग्रहण का समय दिन का मध्यकाल (मध्याह्न) माना है । * मूलाचारवृत्ति में बताया है कि सूर्योदय की दो घड़ी निकलने पर आवश्यक क्रियायें तथा स्वाध्याय आदि करने के बाद मध्याह्न काल की देववन्दना करे, तत्पश्चात् बालकों के भरे पेट से तथा अन्य लिङ्गियों से भिक्षा का समय ज्ञातकर ले और गृहस्थों मध्यम आचरण तथा आचरण कहा गया जितना कि उदरपूर्ति के लिए आवश्यक उतना १. दशवैकालिक १।२- ३. २. दसवेआलियं अध्ययन १ का आमुख पृ० ३-४ ( जैन विश्व भारती, लाडनूं). ३. सूरुदयत्थमणादो णालीतिय बज्जिदे असणकाले । तिगदुग एगमुहुत्ते जहणमज्झिम्म मुक्क्ससे ॥ - मुलाचार वृत्ति सहित ६।७३, मूलाचार प्रदीप २।२३६-२३८. ४. उदयत्थमणे काले णालीतियवज्जियम्हि मज्झम्हि । मूलाचार १३५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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