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________________ आहार, विहार और व्यवहार : २५१ या आहार के रूखे-चिकनेपन आदि पर ध्यान दिये बिना या उन सबकी अपेक्षा किये बिना आहार-ग्रहण करना गोचरी या गवेषणा आहार वृत्ति है।' जिनदास ने भी गोचरी आहार वृत्ति के विषय में इसी प्रकार का उदाहरण देते हुए कहा है कि जैसे एक युवा वणिक्-स्त्री अलंकृत, विभूषित हो, सुन्दर वस्त्र धारण कर गोवत्स को आहार देती है। किन्तु वह गोवत्स उसके हाथ से उस आहार को ग्रहण करता हुआ भी उस स्त्री के रंग, रूप, आभरणादि के शब्द, गंध और स्पर्श में मूच्छित नहीं होता है। इसी प्रकार साधु भी विषयादि शब्दों में अमूच्छित रहता हुआ आहारादि की गवेषणा में प्रवृत्त हो । हरिभद्र ने गोचर शब्द का अर्थ किया है--गाय की तरह चरना-भिक्षाटन करना । जैसे गाय अच्छी-बुरी घास का भेद किये बिना चरती है । वैसे ही साधु को उत्तम, मध्यम और अधम कुल का भेद न करते हुए तथा प्रियअप्रिय आहार में राग-द्वेष न करते हुए भिक्षाटन करना चाहिए । श्वेताम्बर परम्परा के ही अन्य आचार्यों ने भी कहा है कि गोचर का अर्थ है भ्रमण । जिस प्रकार गाय शब्दादि विषयों में गृद्ध नहीं होती हुई आहार ग्रहण करती है उसी प्रकार साधु भी विषयों में आसक्त न होते हुए उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोषों से रहित भिक्षा के लिए भ्रमण करते हैं। इस तरह की गोचर आहारवृत्ति को गोचरी कहते हैं । दिगम्बर तथा श्वेताम्बर परम्परा के श्रमणाचार विषयक प्रायः सभी ग्रन्थों में श्रमण को आहार की 'गवेषणा' करने को कहा गया है जो गोचरी नामक भिक्षा वृत्ति का ही सूचक है। किन्तु आजकल साहित्य आदि के शोध-खोज एवं अनुसन्धान-परक अध्ययन के अर्थ में "गवेषणा" शब्द का प्रयोग होने लगा है। जिसका प्राचीन मूलरूप जैन परम्परा में उपर्युक्त अर्थ के रूप में सुरक्षित है। ५. भ्रामरी-आहारदाता पर भार रूप बाधा पहुंचाये बिना कुशलता से भ्रमर की तरह आहार ग्रहण करना भ्रामरी वृत्ति है। इस प्रकार के आहार को भ्रमराहार भी कहते हैं । जैसे भ्रमर बिना म्लान किये हो द्रुम-पुष्पों से थोड़ा रस पीकर अपने को तृप्त कर लेता है वैसे ही लोक में मुक्त (अपरिग्रही) श्रमण १. तत्त्वार्थवार्तिक ९।६।१६ पृ० ५९७. २. दशवकालिक ५।१।१ की जिनदास कृत चूणि पृ० १६७-१६८. ३. दशवकालिक हारिभद्रीय टीका पत्र १८. ४. दशवकालिक की अगस्त्यसिंह चूणि पृ० ९९ तथा जिनदासकृतचूणि पृ० १६७-१६८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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