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२५० : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
आहारचर्या या भिक्षावृत्ति के निम्नलिखित नामों का उल्लेख मिलता हैउदराग्निप्रशमन, अक्षमृक्षण, गोचरी, श्वभ्रपूरण और भ्रामरी या मधुकरी वृत्ति । " अनगार धर्मामृत में भिक्षा-शुद्धि के वर्णन प्रसंग में ये पाँच भिक्षाशुद्धि के नाम बताये गये हैं ।
१. उदराग्नि प्रशमन भिक्षावृत्ति - इससे तात्पर्य है कि जितने आहार से उदर (पेट) की क्षुधाग्नि शान्त हो उतना हो आहार ग्रहण करना । शरीर को तपश्च-रणादि के योग्य बनाये रखने के उद्देश्य से क्षुधारूपी अग्नि को शान्त करने के लिए आहार ग्रहण करना उदराग्नि प्रशमन भिक्षावृत्ति है ।
२. अक्षमक्षण - जैसे बैलगाड़ी आदि वाहनों को सुगमता से चलाने के लिए उस गाड़ी की धुरी पर ओंगन ( तेलादि से मिश्रित स्निग्ध पदार्थ) लगाया जाता है । उसी प्रकार मुनि इस शरीर को आत्मसिद्धि रूप धर्म का साधन बनाये रखने के उद्देश्य से प्राणधारण के लिए आहार ग्रहण करते हैं । क्योंकि धर्म-साधन के लिए प्राण और मोक्ष प्राप्ति के निमित्त धर्म धारण किया जाता है । शान्त्याचार्य ने भी कहा है कि जैसे गाड़ी के पहिए की धुरी को भार वहन की दृष्टि से चुपड़ा जाता है, वैसे ही गुणभार वहन की दृष्टि से शरीर को पोषण दे । ४
ब्रह्मचारी आहार करे,.
३. श्वभ्रपूरण-- सरस-नीरस आदि रूप आहार से इस पेटरूपी गड्ढे को भर लेना श्वभ्रपूरण आहारविधि है ।" इसे गर्तपूरण भिक्षावृत्ति भी कहते हैं ।
४. गोचरी—जैसे गाय की दृष्टि आभूषणों से सुसज्जित सुन्दर युवती के शृङ्गार पर नहीं अपितु उसके द्वारा लायी गई घास पर ही रहती है, वैसे ही साधु को भी दाता तथा उसके वेश एवं भिक्षा-स्थल की सजावट आदि के प्रति
१. उदरग्गियसमण - मक्खमक्खण-गोयार- सब्भपूरण भमरं ।
णाऊण तप्पयारे, णिच्चेवं भुञ्जदे भिक्खू ||
५.
२. अनगार धर्मामृत ६।४९ पृ० ४४७. ३. अक्खोमक्खणमेत्तं भुंजंति मुणी पाणधारणणिमित्तं ।
पाणं धम्मणिमित्तं धम्मं पि चरंति मोक्ख || मूलाचार ९१४९.
४. जह सगडक्खो वंगो कोरइ भरवहण कारणा णवरं ।
रयणसार १०८, चारित्रसार ७८, तत्त्वार्थवार्तिक ९।६।१६..
तह गुणभर वहणत्थं, आहारो बंभयारीणं ॥
- उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति ८|११ पत्र २९४ ( उत्त० भाग २, पृ० ६९),
तत्त्वार्थवार्तिक ९१६।१६ पृ० ५९७.
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