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आहार, विहार और व्यवहार : २४९
आहार ग्रहण और त्याग के उपर्युक्त छह-छह कारणों का उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा के स्थानांग तथा उत्तराध्ययनसूत्र में भी मिलता है । आहार ग्रहण - के तृतीय कारण 'क्रियार्थ' (किरियाठाए) के स्थान पर स्थानांग तथा उत्तरा-ध्ययन में ईर्ष्या समिति के शोधन के लिए (इरियट्ठाए ) पाठ मिलता है । • तथा आहार त्याग के अन्तिम कारण “ शरीर परित्याग" के लिए आहार का व्युच्छेद के स्थान पर "शरीर विच्छेद के लिए" ( सरीर-वोच्छेय गट्ठाए) पाठ मिलता है ।"
भिक्षा (आहार) चर्या के नाम :
सामान्य रूप में भिक्षा के तीन प्रकार हैं-- दीन-वृत्ति, पोरुषघ्नी और सर्व • संपकरी । अनाथ, दीन-हीन और अपङ्ग व्यक्तियों द्वारा मजबूरीवश माँगकर उदरपूर्ति करने को दीनवृत्ति भिक्षा कहा जाता है । श्रम करने में समर्थ व्यक्ति भी यदि माँग कर खाते हैं तो वह पौरुषघ्नी भिक्षा है । तथा संयम के धारक व्यक्ति द्वारा अहिंसा महाव्रत के विशुद्ध पालन एवं संयम यात्रा के निर्विघ्न - निर्वाह के उद्देश्य से यथालब्ध तथा सहज-सिद्ध आहार माधुकरी आदि वृत्तियों के द्वारा ग्रहण करने को सर्व संपत्करी भिक्षा कहते हैं ।
सर्व संपकरी अर्थात् मुनि भिक्षा-चर्या ही यहाँ प्रतिपाद्य विषय है । वस्तुतः गुणरत्नों को ढोनेवाली शरीर रूपी गाड़ी के लिए समाधिनगर की ओर ले जाने की इच्छा रखने वाले श्रमण को, जठराग्नि का दाह शमन करने के निमित्त औषधि की तरह या गाड़ी में ओंगन देने की तरह अन्न आदि आहार को बिना · स्वाद के ग्रहण करना चाहिए । इसी उद्देश्य से भ्रमण स्वाद के लिए भोजन - नहीं करते अपितु ठण्डा - गरम, रूखा-सूखा, चिकना अथवा विकार रहित, नमक: रहित या नमक सहित भोजन अस्वाद भाव से करते हैं । अतः श्रमणों की
- १. वेयण वेयावच्चे इरियट्ठाए य संजमट्ठाए ।
तह पाणवत्तियाए छट्ठे तुण धम्मचिन्ताए || (क) स्थानांग ६।४१. (ख) उत्तराध्ययन २६ । ३३.
आयंके उवसग्गे तितिक्खया बम्भचेरगुत्तीसु । पाणिदया तवहे सरीर-वोच्छेयणट्ठाए ॥ ( क ) स्था० ६।४२,
(ख) उत्तराध्ययन २६।३५.
- २. सर्व सम्पतकरी चैका पौरुषघ्नी तथापरा ।
वृत्तिभिक्षा च तत्त्वज्ञैरिति भिक्षा त्रिघोदिता || हारिभद्रीय अष्टक प्रकरण ५.१ (दसवै आलियं, अध्ययन ५ का आमुख पृष्ठ १७७)
३. तत्त्वार्थवार्तिक ९।५।६ पृ० ५९४.
४. सीदलमसीदलं वा सुक्कं सुक्खं सिद्धिं सुद्धं वा ।
लोणिदमलोणिदं वा भुंजंति मुणी अणासादं ।। मूलाचार ९१४८.
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