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________________ २४८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन अतः उनका आहार करना निरवद्य एवं संयम को पुष्ट करने वाला है। इसी लिए ज्ञाताधर्मकथा में कहा है कि श्रमण शरीर के द्वारा ज्ञान-दर्शन-चारित्र का परिवहन करने एवं मोक्ष-प्राप्ति के लिए ही आहार-ग्रहण करते हैं न कि शरीर को मोटा-ताजा बनाने के लिए। वस्तुतः सम्यक् दर्शन-ज्ञान और चारित्र-इस रत्नत्रय रूप धर्म का आध साधन शरीर ही है, जिसे भोजन-पान-शयनादि के द्वारा स्थित रखना पड़ता है । किन्तु इस दिशा में उतनी ही प्रवृत्ति होनी चाहिए जिससे कि इन्द्रियाँ अपनेअपने अधीन बनी रहें । रयणसार के अनुसार जो साधु ज्ञान और संयम की वृद्धि के लिए तथा ध्यान और अध्ययन के निमित्त यथालाभ भोजन ग्रहण करता है वह साधु मोक्ष-मार्ग में रत है। आहार-ग्रहण और त्याग के कारण : मूलाचार में आहार ग्रहण के छह कारण उल्लिखित हैं-(१) वेदना (क्षुधा शान्ति), (२) वैयावृत्य, (३) क्रियार्थ (षडावश्यकादि क्रियाओं का पालन) (४) संयमार्थ, (५) प्राणचिन्ता (प्राणों की रक्षा) तथा (६) धर्मचिन्ता। इन छह कारणों के लिए जो यति अशन, खाद्य, लेह्य और पेय-ये चार प्रकार के आहार ग्रहण करता है वह चारित्र धर्म का पालन करने वाला है। .. __आहार-त्याग के भी छह कारण है-(१) आतंक (आकस्मिक व्याधि, ज्वर आदि होने), (२) उपसर्ग, (३) ब्रह्मचर्य गुप्ति की तितिक्षा (सुरक्षा), (४) प्राणिदया, (५) तप तथा (६) शरीर-परित्याग-इन छह कारणों में से किसी एक के भी उपस्थित होने पर वह आहार का त्याग भी करता है तो वह धर्मोपार्जन ही है । वसुनन्दि ने कहा है कि आहार-त्याग के कारण उपस्थित होने पर भले ही क्षुधा-वेदनादि आहार-ग्रहण के कारण उपस्थित हों तो भी आहार-त्याग कर देना चाहिए। १. भगवती सूत्र ११९ सूत्र ४३८ (अंगसुत्ताणि भाग २. पृ० ७३). २. ज्ञाताधर्मकथा अ० २ तथा ८. ३. रयणसार १०७. ४. वेयणवेज्जावच्चे किरियाठाए य संजमट्ठाए । तध पाणधमचिंता कुज्जा एदेहिं आहारं ॥ मूलाचार ६।६०. : . ५. आदके उवसग्गे तितिक्खणे बंभचेरगुत्तीओ।। पाणिदयातवहेऊ सरीरपरिहार वोच्छेदो ॥ वही ६।६१. ६. वही ६।५९. - ७. मूलाचारवृत्ति ६।६१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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