SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 298
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आहार, विहार और व्यवहार : २४७ बाल (गेहूँ), चना आदि, २. प्रान्ताहार-स्वभावतः रसहीन, निःसत्त्व द्रव्य और ३. रूक्षाहार-पूर्णतः स्नेहविहीन आहार । प्रमुख ग्रन्थों के आधार पर सभी प्रकार के आहारों को चार भेदों में विभाजित किया गया है-१. कर्माहारादि, २. खाद्यादि ३. कांजी आदि और ४. पानकादि । इन चारों के अन्तर्गत किन-किन आहारों को अन्तर्भूत किया जा सकता है उन्हें निम्नलिखित विभाजन एवं चार्ट के माध्यम से दिखाया गया है।' आहार १. कर्माहारादि २. खाद्यादि ३. कांजी आदि ४. पानकादि कर्माहार अशन कांजी स्वच्छ नोकर्माहार पान आचाम्ल बहल कवलाहार खाद्य या भक्ष्य बेलड़ी लेवड़ लेप्याहार लेह्य एकलटाना अलेवड़ ओजाहार स्वाद्य ससिक्थ मानसाहार असिक्थ आहार ग्रहण का उद्देश्य : ___ आत्म कल्याण के निमित्त घर, परिवार, सूखपूर्ण सांसारिक वैभव, समस्त भोगोपभोग के साधन आदि का त्याग कर श्रमणवेश धारण किया जाता है । अतः आत्म-कल्याण के इच्छुक साधकों के आहार-ग्रहण का उद्देश्य भी संयमयात्रा की सिद्धि हेतु शरीर-स्थिति बनाए रखना है, क्योंकि उसका साधन शरीर है । मूलाचारकार के अनुसार बल, आयु, शरीर, तेज-इन सबकी वृद्धि और स्वाद के उद्देश्य से श्रमण आहार नहीं करते अपितु वे ज्ञान, संयम, और ध्यान की साधना के निमित्त आहार-ग्रहण करते हैं। उत्तराध्ययन में कहा है कि भिक्षाजीवी मुनि संयम-जीवन की यात्रा के लिए आहार की गवेषणा करे किन्तु रसों में मूच्छित न बनें। भगवतीसूत्र में कहा है कि प्रासुक (निर्दोष) आहार करता हुआ साधु आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों के बन्धनों को ढीला करता है १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १ पृष्ठ २९९. २. ण बलाउसाउअठं ण सरीरस्सुवचयठ्ठ तेजठें । गाणट्ठ संजमठं झाणठें चेव भुजेज्जो ॥ मूलाचार ६१६२. ३. (क) जत्तासाघणमेत्तं-वही ६१६४. (ख) भुंजंति मुणी पाणधारणणिमित्तं-वही ९।४९. ४. उत्तराध्ययन ८।११. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy