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________________ २४६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन / सूत्रकृतांग नियुक्ति में एषणीय आहार ग्रहण के मार्गों की चर्चा-प्रसंग में तीन प्रकार के भाव आहार बताये हैं' : १. ओज-आहार-जन्म के पूर्व माता के गर्भ में सर्वप्रथम गृहीत (लिया जाने वाला) आहार जो केवल शरीर पिण्ड द्वारा ग्रहण किया जाता है। २. रोम-आहार-जो त्वचा या रोम-कूप द्वारा ग्रहण किया जाता है जैसे हवा आदि । ३. प्रक्षेप (प्रक्षिप्त) आहार-जो मुख जिह्वादि द्वारा ग्रहण किया जाता है । मूलाचार तथा अन्य आचारशास्त्र के प्रायः अन्य सभी जैन ग्रन्थों में आहार के चार भेद किये हैं-१. अशन, २. पान, ३. खाद्य और ४. स्वाद्य । इनमें जो भूख को मिटाता है वह अशन है जैसे भात-दाल आदि । जो दस प्रकार के प्राणों पर अनुग्रह करता है, उन्हें जीवन देता है वह पान या पेय है जैसे जलदूध आदि । जो रस पूर्वक खाया जाता है वह खाद्य या खादिम है जैसे लड्डू, पूड़ी, फल आदि । तथा जो आस्वादयुक्त होता है वह स्वाद्य है जैसे-लौंग, इलायची, सुपाड़ी आदि ।२ मूलाचार ने इस विभाजन को पर्यायार्थिक नय की संज्ञा देते हुए कहा है कि यों तो आहार के उपयुक्त चार भेद हैं, किन्तु द्रव्याथिक नय की अपेक्षा से सभी आहार अशन है. सभी आहार पान है, सभी खाद्य और सभी स्वाद्य हैं ।३ हस्त-पात्र में आहार-ग्रहण के प्रसंग मे तो आहार में ग्राह्य पदार्थों का विभाजन और भी विस्तृत कर दिया गया है-१. अशन अर्थात् चावल (भात), दाल आदि, २. पान अर्थात् दुग्ध, जल आदि, ३. खाद्य अर्थात् लड्डू, पूड़ी आदि, ४. भोज्य अर्थात् भक्ष्य (मंडकादि), ५. लेह्य अर्थात् आस्वाद्य, ६. पेय अर्थात् स्तोक-भक्तपानबहुल । सूत्रकृतांग नियुक्ति का विभाजन आहार-ग्रहण के मार्गों पर आधारित है। किन्तु बृहत्कल्पभाष्य में अन्न के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट तीन भेद बताये गये हैं । इनमें जघन्य अन्न के अन्तर्गत आहार के तीन भेद है५-१. अन्ताहार १. भावाहारो तिविहो ओए लोमे य पक्खेव-सूत्रकृतांग नियुक्ति २।३।१।२०. २. असणं खुहप्पसमणं पाणाणमुणुग्गहं तहा पाणं ।। खादंति खादियं पुण सादंति य सादियं भणियं ।। मूलाचार ७।१४७, अन गार-धर्मामृत ७।१३ पृ० ४९८. ३. वही ७।१४८. ४. असणं जदि वा पाणं खजं भोजं च लिज्ज पेज्जं वा । पडिलेहिऊण सुद्धं भुंजंति पाणिपत्तेसु ॥ मूलाचार वृत्तिसहित ९।५४. ५. बृहत्कल्पभाष्य १३६३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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