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" आहार, विहार और व्यवहार : २४५
प्राप्त श्रामण्यतुच्छ अर्थात् श्रामण्यगुणविहीन कहलाता है ।"
आहार के लिए 'पिण्ड' शब्द का तथा " आहार शुद्धि" के लिए 'पिण्ड शुद्धि का प्रयोग प्रायः जैन साहित्य में मिलता है । पिण्ड शब्द पिडि संघाते धातु से बना है । सामान्य अन्वर्थ की दृष्टि से सजातीय या विजातीय ठोस वस्तुओं के एकत्रित होने को पिण्ड कहते हैं । किन्तु श्रमणाचार के प्रसंग में अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य - इन चारों प्रकार के आहार को "पिण्ड" शब्द से अभिहित किया जाता है । मूलाचारवृत्ति में पिण्डशुद्धि का आहारशुद्धि अर्थ किया है ।
आहार : स्वरूप और भेद :
" आहार" का सामान्य अर्थ " भोजन" है आचार्य पूज्यपाद ने आहार शब्द की परिभाषा में कहा है कि तीन शरीर ( औदारिक, वैक्रियिक और आहारक ) और छह पर्याप्तियों (आहार, शरीर, इन्द्रिय, आनप्राण अर्थात् श्वासोच्छवास, भाषा और मन ) के योग्य पुद्गल वर्गणाओं के ग्रहण करने को 'आहार' कहते हैं । *
वस्तुतः शरीर रत्नत्रयरूपी धर्म का मुख्य कारण है । अतः पिण्ड अर्थात् आहार- पान आदि के द्वारा इस शरीर की स्थिति बनाये रखने के लिए इस प्रकार का प्रयत्न करना चाहिए, जिससे इन्द्रियाँ वश में रहें और अनादिकाल से सम्बद्ध तृष्णा के वशीभूत होकर वे कुमार्ग की ओर न ले जावें । " क्योंकि जगत् के सम्पूर्ण प्राणियों के जीवन का आधार आहार है, चाहे वह किसी भी रूप में क्यों न हो, सभी प्राणी अपनी-अपनी शरीर प्रकृति के अनुरूप आहार ग्रहण करते हैं । आहार की अभिलाषा (संज्ञा ) उत्पन्न होने के चार कारण हैं - १. आहार के देखने से, २. उसकी ओर उपयोग ( मन ) लगाने से, ३. पेट के खाली होने से तथा ४. असातावेदनीय कर्म की उदय एवं उदीरणा होने से ।
१. पिंडोवधि सेज्जाओ अविसोधिय जो य भुंजदे समणो ।
मूलट्ठाणं पत्तो भुवणेसु हवे समणपोल्लो || मूलाचार १०।२५. २. पिण्डनिर्युक्ति गाथा ६.
३. पिण्डशुद्धि माहारशुद्धिमिति - मूलाचारवृत्ति पिण्डशुद्धि अधिकार गाथा १. ४. त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तीनां योग्यपुद्गलग्रहणमाहारः
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- सर्वार्थसिद्धि २/३०।३२० पृ० १३३.
५. अनगार धर्मामृत स्वोपज्ञ ज्ञानदीपिका ७१९ पृष्ठ ४९५ ६. आहारदंसणेण य तस्सुवजोगेण ओमकोठाए ।
सादिरुदीरणाए हवदि हु आहारसण्णा हु | गोम्मटसार जीवकाण्ड १३५.
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