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आहारचर्या
श्रमणाचार के प्रसंग में श्रमणों की आहारचर्या और उसकी विशुद्धता का विशेष महत्त्व है । चूँकि आहार जीवन के लिए अनिवार्य है किन्तु प्रत्येक व्यक्ति का आहार, इसका प्रकार एवं उद्देश्य आदि विभिन्न पक्ष उस व्यक्ति के आचारविचार एवं व्यवहार आदि उसके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित करते हैं । इसलिए श्रमणाचार विषयक सम्पूर्ण वाङ्मय में आहारचर्या के विषय में समग्रता से चितन देखने को मिलता है, वैसे उसके प्रतिपादन का मुख्य उद्देश्य आहार - विवेक को सूक्ष्मता से विश्लेषित करना है । वस्तुतः श्रमण के मूलगुण और उत्तरगुणों के बीच भिक्षाचर्या को 'मूलयोग' कहा गया है ।' चारित्र, तपश्चरण और संयम की विशुद्धता – ये सब आहारचर्या की विशुद्धता पर निर्भर करते हैं । अतः यह आहार - विवेक समग्र साधना का एक प्रधान अंग भी है जिसकी उपेक्षा करके साधना के क्षेत्र में निर्विघ्न आगे नहीं बढ़ सकता ।
आचार्य वट्टकेर ने अपने मूलाचार ग्रन्थ के 'पिण्डशुद्धि' नामक छठे अधिकार में आहारचर्या का स्वतंत्र एवं सूक्ष्म विश्लेषण प्रस्तुत किया है । इसके साथ ही प्रायः इस सम्पूर्ण ग्रन्थ में प्रसंगानुसार यत्र-तत्र आहार विशुद्धि का यथोचित प्रतिपादन एवं आहार-विवेक के विषय में निरन्तर सावधान बने रहने को कहा है। क्योंकि जो श्रमण जिस किसी स्थान पर शुद्ध - अशुद्ध रूप में चाहे . जैसा उपलब्ध पिण्ड (आहार) तथा उपधि आदि को शोधन किये बिना ग्रहण कर लेता है, वह श्रमण - गुण ( श्रामण्य ) से रहित होकर संसार को बढ़ा वाला है । चिरकाल से दीक्षित श्रमण भी यदि आहार शुद्धि का ध्यान नहीं रखता तब उस तप, संयम और चारित्रविहीन श्रमण की आवश्यक क्रियायें भी कैसे शुद्ध रह सकती हैं ? ऐसा श्रमण तो लोक में मुलस्थान (गृहस्थ - भाव) को
१. जोगेसु मूलजोगं भिक्खाचरियं च वण्णियं सुत्ते । to
२. जो जत्थ जहा लद्धं गेहदि आहारमुवधिमादीयं ।
पुणो जोगा. विष्णाणविहीणएहि कया ।। मूलाचार १०।४६.
समणगुणमुक्कजोगी ३. वही सवृत्ति १०।२६.
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संसारपवड्ढओ होइ ।। वही १०।४०.
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