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चतुर्थ अध्याय आहार, विहार और व्यवहार आहार, विहार और व्यवहार-ये श्रमणाचार की तीन महत्त्वपूर्ण चर्याय हैं । एक ओर जहाँ मूलगुण एवं उत्तरगुण सम्पूर्ण श्रामण्य की कसोटी बनकर उनकी संयम यात्रा के लक्ष्य को प्राप्त कराने में अपना महत्त्वपूर्ण योग करते हैं, वहीं आहार, विहार और व्यवहार-ये चर्चायें उनके बाह्य जीवन, सम्पूर्ण व्यक्तित्व एवं अन्यान्य उन सभी कार्यों को विशुद्धता एवं समग्रता प्रदान करती है जिनका सीधा सम्बन्ध आत्मोत्कर्ष में सहयोग तथा सच्चे श्रामण्य की पहचान से है । आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि देश, काल, श्रम, अम (सहनशक्ति) और उपधि (शरीरादि रूप परिग्रह) को अच्छी तरह जानकर श्रमण आहार एवं विहार में प्रवृत्त होता है । यद्यपि इसमें भी उसे अल्प-कर्मबंध होता है।' किन्तु इतना अवश्य है कि श्रमण चाहे बालक हो अथवा वृद्ध अथवा तपस्या या मार्ग (पैदल आवागमन) के श्रम से खिन्न (थका हुआ) अथवा रोगादि से पीडित, वह अपने योग्य उस प्रकार की चर्या का आचरण कर सकता है, जिसमें 'मूल संयम' का घात (हानि) न हो। इसीलिये इस लोक से निर'पेक्ष, परलोक की आकांक्षा एवं आन्तरिक कषाय से रहित होकर 'युक्तआहार-विहार' होना चाहिए। क्योंकि श्रमण का चारित्र, तपश्चरण एवं संयम आदि का अच्छी तरह से पालन उसको आहार-चर्या की विशुद्धता पर निर्भर है। इसी तरह समितिपूर्वक विशुद्ध विहार-चर्या द्वारा भी वह श्रमण रत्नत्रय प्राप्ति का अभ्यास, शास्त्रकोशल एवं समाधिमरण के योग्य क्षेत्र तथा जन-जन के कल्याण की भावना रूप लक्ष्य को सहज ही प्राप्त कर लेता है तथा आहारविहार एवं बाह्य जीवन के विविध व्यवहार-कार्यों या क्रियाओं में विवेक रखकर -स्व-पर कल्याण में सदा प्रवृत्त बने रहते हैं ।
इस प्रकार श्रमण जीवन में इन तीन चर्याओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है । यहाँ इन तीनों का क्रमशः विवेचन प्रस्तुत है१. आहारे व विहारे देसं कालं समं खमं उवधि ।
जाणित्ता ते समणो वट्टदि जदि अप्पलेकी सो॥ प्रवचनसार ३१३१. २. बालो वा बुड्ढो वा समभिहदो वा पुणो गिलाणो वा ।
चरियं चरउ सजोग्गं मूलच्छेदं जघा ण हवदि ॥ वही ३।३०. ३. वही ३।२६.
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