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-२३८ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
शील :
सामान्यः शील का अर्थ स्वभाव या प्रकृति है । अहिंसादि महाव्रतों को • जिनके द्वारा रक्षा होती है वे गुण शील कहे जाते हैं । ' पंचेन्द्रिय विषयों से विरक्त होना भी शील है । जीव दया, इन्द्रियदमन, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, सम्यग्दर्शन, ज्ञान और तप-- - ये सब शील के परिवार हैं और ऐसा शील मोक्ष महल की सीढ़ी माना गया है ।
वस्तुतः मनुष्य की मन, वचन और काय सम्बन्धी प्रत्येक क्रिया का सम्बन्ध शील के साथ है । विशुद्ध भावों से किसी कार्य में प्रवृत्त होना सदाचार या शील है | चारित्र को धर्म कहा है इसे ही हम शील भी कह सकते हैं क्योंकि - इन्द्रिय विषयों से विरक्त व्यक्ति ही चारित्रवान् या शीलवान् कहा जाता है । चारित्र तत्वज्ञान से पुष्ट होता है । शील के बिना ज्ञान नहीं होता और ज्ञान के बिना शील में प्रवृति नहीं होती । सीलपाहुड में कहा है: शील के बिना इन्द्रियों के विषय ज्ञान का नाश कर देते हैं इसीलिए शील और ज्ञान का विरोध नहीं है । क्योंकि श्रेयस् और अश्रेयस् के विवेकज्ञान से नष्ट करके शीलवान् बन जाता है तथा शील प्राप्ति रूप ' (सम्पूर्ण चारित्र) को प्राप्त करके वह निर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त करता है । शुभ योग में प्रवृत्ति, अशुभ योग से निवृत्ति तथा आहार, भय, मैथुन और - परिग्रह — इन चार संज्ञाओं से रहित, पंचेन्द्रिय निग्रह, कायसंयम तथा उत्तम- क्षमादि दस धर्मों का पालन – ये सब शील के भेद हैं" । इस तरह —— योग, कारण, संज्ञा, इन्द्रिय तथा पृथ्वीकाय आदि जीव और क्षमादि धर्मों का परस्पर • गुणन करने पर शील के अट्ठारह हजार भेद होते हैं, जो इस प्रकार हैं
जीव दुःशीलों को
फल से अभ्युदय
मन, वचन, काय की शुभ प्रवृत्ति रूप तीन शुभयोग का मन, वचन और काय रूप तीन अशुभयोग की निवृत्ति रूप करण से गुणित करने पर (३ x ३ = ९) नौ भेद हुए । इनमें आहार आदि चार संज्ञा-विरत का गुणा करने पर ( ९x४ = ३६) छत्तीस भेद हुए । इनमें पाँच इन्द्रिय-विरोध से गुणित करने १. शीलं व्रत परिरक्षणं - मूलाचार वृत्ति ११।१ .
२. सील पाहुड ४०, १९, २०. ३. वही २. ४. सेया सेयविदण्हू उद्घददुस्सील सीलवं होदि ।
सीलफलेणब्भुदयं तत्तो पुण लहदि णिव्वाणं ।। मूलाचार १०।१३.
५. मूलाचार वृत्ति सहित ११।१.
६. जोए करणे सण्णा इन्दिय भोम्मादि समणधम्मे य ।
torture अभत्था
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अट्ठारहसीलसहस्साइं । वही ११ । २.
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