SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरगुण : २३९ ‘पर (३६४५ = १८०) एक सौ अस्सी भेद हुए। इनमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, प्रत्येक वनस्पति, साधारण वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय-इन दस जीवों के प्रति दस प्रकार के संयम का गुणा करने पर (१८०x १० = १८००) एक हजार आठ सौ भेद हुए । पुनः इसमें उत्तम क्षमादि दस धर्मों का गुणा करने पर (१८००x१० = १८०००) शील के अट्ठारह हजार भेद हुए।' इस तरह तीन योग, तीन करण, चार संज्ञायें, पाँच इन्द्रिय, दस पृथ्वीकायिक आदि जीव के भेद और दस श्रमणधर्म-इन सबका परस्पर गुणा करने पर शील के अठारह हजार भेद सिद्ध होते हैं । वट्टकेर ने शीलों का उत्पत्तिक्रम इस प्रकार बताया है-जिसने मन को वश में किया है अतः मन के अशुभ करण से रहित, शुद्ध मन से युक्त प्रथम आहार संज्ञा से रहित, प्रथम स्पर्शेन्द्रिय को जीतने वाले, पृथ्वीकायिक जीवों के प्रति संयमी, क्षमाधर्म से युक्त श्रमण विशुद्ध चारित्रयुक्त प्रथम शोल में दृढ़ रहते हैं । इसी तरह द्वितीय, तृतीय शील में क्रमशः आगे बढ़ते हुए १८००० शीलों में दृढ़ बनता है। इस प्रकार जो श्रमण इन शीलों का यथार्थता से पालन करता है वह सभी कल्याणों को प्राप्त करता है। क्योंकि शील का अर्थ ग्रहीत व्रतों की रक्षा करना भी है। १. मूलाचार ११॥२-५. २. वही ११॥६-७. ३. वही ११।२६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy