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________________ उत्तरगुण : २३७. १२. बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा-कर्मों के क्षय के लिए मनुष्यत्व, श्रुति, श्रद्धा एवं संयम-इन चार दुर्लभ तत्वों का आश्रय लेना तथा इनका अनुचिन्तन करना बोधिदुर्लभ है ।' बोधि का अर्थ है जिस उपाय से सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होता है, उस उपाय की चिन्ता करना।२ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को भी बोधि कहते हैं। यहाँ दर्शनबोधि का अर्थ दर्शन-प्राप्ति की उपाय चिन्ता एवं ज्ञानबोधि से तात्पर्य ज्ञान प्राप्ति की उपायचिन्ता तथा चारित्रबोधि का अर्थ चरित्रप्राप्ति की उपायचिन्ता फलित होता है। इनकी दुर्लभता का विचार करना बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है । श्रेष्ठ देश, कुल, जन्म, आयु, आरोग्य, वीर्य, विनय, श्रवण, ग्रहण, मति तथा धारणा-ये सभी जब उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं, तब तो बोधि की अति दुर्लभता स्वयं सिद्ध है। फिर भी जो उस बोधि प्राप्ति में प्रमाद करता है वह कापुरुष दुर्गतियों को प्राप्त होता है । ३ सर्वार्थसिद्धि में कहा है कि इस प्रकार अति कठिनता से प्राप्त होने योग्य उस धर्म को प्राप्त कर विषयसुख में रममाण होना, भस्म के लिए चन्दन को जलाने के समान निष्फल है । कदाचित् विषयसुख से विरक्त हुआ तो भी इसके लिए तप की भावना, धर्म की प्रभावना और सुखपूर्वक मरणरूप समाधि को प्राप्त होना अतिदुर्लभ है । इसके होने पर ही बोधिलाभ सफल है-ऐसा विचार करना बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है । इस प्रकार चिन्तन से जीव बोधि को प्राप्त कर कभी भी प्रमाद नहीं करता। भव-भय की मथनी, विस्तृत गुणों की आधारभूत बोधि प्राप्त कर लेने पर उसमें प्रमाद करना योग्य नहीं होता।" बोधि रूप सम्यक्त्व के तीन भेद है-उपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायोपशम सम्यक्त्व । इन्हें प्राप्त करके भव्य जीव तप और संयम के द्वारा अक्षय सुख पा सकता है।' इस प्रकार इन बारह अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन से श्रमण अपने वैराग्यमय जीवन को सुदृढ़ बनाता है । इसलिए इन्हें संवर का कारण कहा गया है । क्योंकि अध्रुव आदि अनुप्रेक्षाओं का सानिध्य मिलने पर उत्तम क्षमा आदि धर्म के धारण करने से महान् संवर होता है । १. उत्तराध्ययन ३।१. २. बारस अणुवेक्खा ८३. ३. मूलाचार ८।६६,६९. ४. सर्वार्थसिद्धि ९७४८०९ पृ० ३१९. ५. मूलाचार ८१६८. ६. वही ८१७०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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