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२३६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन "प्राप्त होने पर जो निर्जरा होती है वह अबुद्धिपूर्वक या अकुशलानुबन्धा निर्जरा है । यह सब प्राणियों के होती है। किन्तु परीषह के जीतने तथा तपश्चर्या के निमित्त से फलकाल के बिना प्राप्त हुए स्वोदय या परोदय से जो कर्मों की निर्जरा होती है वह कुशलमूला निर्जरा है । वह शुभानुबन्धा तथा निरनुबन्धा होती है। इस प्रकार निर्जरा के गुण-दोष का विचार करना निर्जरानुप्रेक्षा है।' ऐसा विचार करने से जीव की प्रवृत्ति तपश्चर्या की ओर होती है। कहा भी है किआत्म ध्यान से कर्मों की निर्जरा तथा जन्म, जरा, मरण आदि सभी से मुक्ति मिलती है । इस तरह मन से कर्म निर्जरा का चिन्तन करना चाहिए।
११. धर्मानप्रेक्षा-विहित धर्मों के पालन से कर्मों की निर्जरा होती है। और इसी से दया, क्षमा आदि धर्मों का उदय होता है। इन्हीं धर्मों का चिन्तन धर्मानुप्रेक्षा है । क्षमा, मार्दव आदि दस धर्म है । इनकी भावना से उपशम, दया क्षान्ति और वैराग्य आदि गुण जीव में जैसे-जैसे बढ़ते हैं वैसे ही उसे सद्यः अक्षय मोक्ष-सुख की प्राप्ति होती है । जरा और मरण के तेज प्रवाह में बहत-डूबते हुए प्राणियों के लिए धर्म ही द्वीप प्रतिष्ठा, गति तथा उत्तम शरण है। जो प्राणी इस लोक में कल्याण की परम्परा और परमसौख्य की प्राप्ति करना चाहता है उसे जिनोपदिष्ट धर्म पर श्रद्धा और उस पर आचरण करना चाहिए। क्योंकि आचार्य पूज्यपाद ने कहा है कि जिनेन्द्रदेव ने जो अहिंसा लक्षण धर्म कहा है-सत्य उसका आवार, विनय उसकी जड़, क्षमा उसका बल तथा वह ब्रह्मचर्य से रक्षित है । उपशम की उसमें प्रधानता है, नियति उसका लक्षण तथा परिग्रह रहितपना उसका आलम्बन है । ऐसे धर्मलाभ से नाना प्रकार के अभ्युदयों की प्राप्तिपूर्वक मोक्ष की प्राप्ति होना निश्चित है-ऐसा चिन्तन करना धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा है । इस प्रकार के चिन्तन से जीव का धर्म में अनुराग बढ़ता है।
१. सर्वार्थसिद्धि ९।७।८०७ तथा तत्त्वार्थसूत्र पृष्ठ ४२१. (पं० फूलचन्द शास्त्री
द्वारा सम्पादित) २. मूलाचार ८।५९. ३. योगशास्त्र ४।९२-९३. ४. मूलाचार ८१६२-६३, १११५. ५. उत्तराध्ययन २३।६८. ६. मूलाचार ८।६१. ७. सर्वार्थसिद्धि ९।७।८१०.
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