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उत्तरगुण : २३५. है । वैसे ही यह आत्मा निश्चय ही कर्मों का आस्रव होने से विनाश को प्राप्त होता हुआ गतिरूपी समुद्र में (गोते लगाता हुआ) डूबा रहता है । अतः इन्द्रिय, कषाय और अव्रत आदि महानदी के प्रवाह की तरह अतितीक्ष्ण हैं, इहलोक और परलोक में दुःखदायी हैं। इस प्रकार का चिन्तन करना आस्रवानुप्रेक्षा है अतः इसका चिन्तन करते हुए श्रमण को साम्यभाव में लीन रहना चाहिए।' इस चिन्तन से जीव के क्षमादि धर्म में कल्याणबुद्धि का त्याग नहीं होता। कछुए के समान जिसने अपनी आत्मा को संवृत कर लिया है उसके आस्रव-दोष. नहीं होते।
९. संवरानुप्रेक्षा-इन्द्रिय, कषाय, संज्ञा, गारव और रागादि-आस्रव के इन सम्पूर्ण कारणों को रोकना संवर है, तथा संवर के गुणों का पुनः पुनः चिन्तन संवरानुप्रेक्षा है । संवर का फल निर्वाण है। संवर के दो भेद हैं-द्रव्य और भाव । कर्मों के आगमन का रोकना द्रव्यसंवर है तथा भव-भ्रमण की कारणभूत क्रियाओं का त्याग करना भावसंवर है ।" उत्तम-क्षमा आदि संवर के उपाय हैं। संवर और समाधि से युक्त होकर विशुद्धात्मापूर्वक नित्य संवर का चिन्तन करने से जीव में संवर के प्रति निरन्तर उद्यतता तथा संवर के कारणों में आस्था बनी रहने से मोक्ष फल की प्राप्ति होती है।
१०. निर्जरानुप्रेक्षा-आस्रव के कारणों का निरोध तथा तपश्चरण करना निर्जरा है । इसके स्वरूप का चिन्तन निर्जरानुप्रेक्षा है। इसके दो भेद हैं - प्रथम कर्मकदेशनिर्जरा अर्थात् संसार में घमने वाले जीवों के कर्मों की क्षयोपशमरूप निर्जरा । द्वितीय सकलनिर्जरा अर्थात् तप के द्वारा कर्मों की विपुल निर्जरा । सर्वार्थसिद्धि में कहा है कि वेदना विपाक अर्थात् फल देकर कर्मों के झड़ जाने को निर्जरा कहते हैं। इसके दो भेद हैं-अबुद्धिपूर्वक और कुशलमूला । नरकादि विविध गतियों में कर्मफल के विपाक से अर्थात् फल काल के
१. मूलाचार ८।३७-४५. २. सर्वार्थसिद्धि ९।७।८०५ पृ० ३१८. ३. मूलाचार ८४६. ४. संवरफलं तु णिव्वाणं-वही, ८1५१. ५. योगशास्त्र ४८०. ६. मूलाचार ८१५१. ७. सर्वार्थसिद्धि ९७. ८. मूलाचार ८१५४. ९. वही ८५५.
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