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२३४ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन
अच्छी तरह समझ लेना चाहिए।' ऐसे चिन्तन से सांसारिक दुःखों के भय से उद्विग्नता उत्पन्न हो जाती है तब वह जीव संसार-नाश की ओर प्रयत्नशील होता है।
६. लोकानुप्रेक्षा-लोक के आकार-प्रकार तथा उसके स्वरूप का अनुचिन्तन करना लोकानुप्रक्षा है। यथा-यह लोक अकृत्रिम, अनादिनिधन और स्वभाव निष्पन्न है । जीव और अजीव पदार्थों से यह पूर्ण भरा हुआ तथा हमेशा स्थित रहने से नित्य है । तालवृक्ष के समान आकार है। जीव और पुद्गलों की गति और अगति जहाँ तक है उतना लोक है, उसके बाद अलोकाकाश है। धर्म और अधर्मद्रव्य लोकाकाश प्रमाण हैं । इस लोक में जीव स्वकर्मोपार्जित सुख-दुखों का अनुभव करता हुआ इसी अनन्त संसार में पुनः पुनः जन्म-मरण धारण करता है । अतः यह लोक दीर्घगमन युक्त निस्सार है । लोकान-शिखर पर निवास ही सुखकर है-ऐसा चिन्तन लोकानुप्रेक्षा है । इस अनुप्रेक्षा के चिन्तन से तत्त्वज्ञान में विशुद्धि होती है।
७. अशुचि (अशुभ) अनुप्रेक्षा-इस अनुप्रेक्षा के अन्तर्गत यह चिन्तन किया जाता है कि नरकों में सर्वदा अशुभ, तिर्यच में बन्धन, अवरोधादि तथा मनुष्यों में रोग-शोकादि बने ही रहते हैं। देव तक मानसिक रूप से असन्तुष्ट और अशुभ होते हैं । काम की चाह दुःख-विपाकी (बन्धनादि प्राप्त कराने वाली) है । अर्थ, काम और शरीर-ये अशुभ-परम्परा के कारण होने से सभी अशुचि रूपः हैं। शरीर तो अनेक दुर्गन्ध पदार्थों से भरा हुआ है। तथा अशुचि पदार्थों का तो यह शरीर घर ही है । अतः आत्म कल्याण करने वाले जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित जिनधर्म को छोड़ सब अशुभ है-इस तरह का चिन्तन करना चाहिए। इस प्रकार के चिन्तन से शरीर के प्रति निर्वेद हो जाने से जीव मुक्ति प्राप्ति में चित्त लगाता है।"
८. आस्रवानुप्रेक्षा-आस्रव के दोषों का चिन्तवन आस्रवानुप्रेक्षा है । राग, द्वेष, मोह, पंचेन्द्रिय भोग, आहार, संज्ञा, गारव, कषायें-इनसे कर्मों का आस्रव होता है । हिंसा आदि पाँच पाप तो कर्मागम के साक्षात् पाँच द्वार हो हैं । जैसे नौका में छेद हो जाने पर उसमें पानी भर जाता है और वह समुद्र में डूब जाती
१. मूलाचार, ८।१९. २. सर्वार्थसिद्धि ९७।८०३. ३. मूलाचार ८।२१-२८. ४. मूलाचार ८।३०-३६. ५. सर्वार्थसिद्धि ९७४८०४ पृ० ३१७.
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